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विश्व-राजनीति एवं भारतीय विदेश नीति पर महात्मा गाँधी का प्रभाव-डॉ. श्रीश पाठक


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साबरमती के संत की छाप यों तो जीवन के लगभग सभी विमाओं पर है पर विदेश नीति के संदर्भ में गाँधी का प्रभाव अवश्य ही वह विषयभूमि है जिसपर कम ही चर्चा देखने को मिलती है l उपनिवेशवाद की आग का जवाब देने की ज़िम्मेदारी प्रत्येक उपनिवेश को अपनी स्वतंत्रता संघर्षों के समानांतर ही उठानी होती है, क्योंकि उपनिवेशवाद अपने प्रभाव में व्यक्ति व राष्ट्र के लगभग सभी आयामों पर निर्मम प्रहार करता है और उन्हें इस कदर विवश कर जाता है कि स्वतंत्रता की चाह ही कईयों को अनापेक्षित व हास्यास्पद लगने लगती है l यही मानसिकता, उपनिवेशवाद के भीतर भी तमाम अच्छाईयाँ देखने को उकसाती है और अंततः स्वतंत्रता को और दूर की कौड़ी बना देती है l इससे लड़ने के लिए एक वैचारिक संघर्ष भी समांनातर खड़ा करना होता है, जिसे ही उत्तर-उपनिवेशवाद कहते हैं l महात्मा गाँधी भारतीय उत्तर-उपनिवेशवाद के संघर्ष के सर्वाधिक मजबूत स्तम्भ हैं l उत्तर-उपनिवेशवाद के बौद्धिक अभ्यास से ही स्वतंत्र राष्ट्र आखिरकार किन दार्शनिक आधारों पर खड़ा होगा जिससे कि औपनिवेशिक कुप्रभावों से जूझा जा सके, इसके स्रोत भी निर्मित होते हैं l स्वतंत्र राष्ट्र भारत की स्वतंत्र विदेश नीति जिस जमीन पर खड़ी है, उसका एक बड़ा प्रभावी हिस्सा महात्मा गाँधी के विचारों का है l यों तो विशाल भारत की विशद सनातन परंपरा को देखते हुए कई अन्यान्य मानवीय मूल्यों के स्रोत के रूप में एकमात्र महात्मा गाँधी को देखना तो तार्किक न होगा किन्तु परतंत्रता के उन समयों में जबकि शासन व्यवस्था यह स्थापित करने की जिद में हो कि भारत में किन्हीं भी मूल्यों की कोई मजबूत परंपरा ही नहीं रही है, महात्मा गाँधी का बौद्धिक व कार्यकारी योग फिर स्वर्णिम महत्त्व का हो जाता है l


महात्मा गाँधी: वैश्विक-राष्ट्रीय सहभागिता 

महात्मा गाँधी का स्पष्ट मानना था कि अंग्रेजों से नहीं अंग्रेजियत से घृणा करनी चाहिए l उन्हें अंग्रेजों से कोई विभेद नहीं था, वे पश्चिम के नहीं, पश्चिमीकरण के खिलाफ थे l उस समय एक पराधीन राष्ट्र के किसी व्यक्ति को अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिलना अकल्पनीय था l लेकिन अपनी समावेशी संकल्पना के बल पर गाँधी, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, रूस सहित कई देशों के निवासियों से प्रभावी रूप से जुड़े हुए थे और निरंतर संवाद में थे l विश्व-राजनीति में साख ही एकमात्र मुद्रा है और साख धीरे-धीरे बनती है l महात्मा गाँधी का एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभरना, विश्व में भारत की एक लोकतांत्रिक छवि को गढ़ने में मदद करता है l बोअर युद्धों में (1897-99) और जुलू विद्रोह में (1906) अफ्रीका में रह रहे गाँधी, मानवीय आग्रह के आधार पर अम्बुलेंस कोर्प्स का गठन कर जब अंग्रेजों की मदद करते हैं तो भी गाँधी का लक्ष्य भारतीय राष्ट्रहित ही था, राष्ट्रहित ही किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य होता है l दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया मज़दूरों के लिए किया गया संघर्ष महात्मा गाँधी को न केवल अपने देश भारत में लोकप्रिय बनाती है अपितु उन्हें उपनिवेशवाद के दौर में एक शांतिप्रिय योद्धा की वैश्विक छवि प्रदान करती है l यह वैश्विक छवि, महात्मा गाँधी को उस देश का एक स्पष्ट आवाज़ बनाती है जो भले ही ग़ुलाम है लेकिन विश्व उसी आवाज के माध्यम से भारत को सुनता है l इसप्रकार से कहा जा सकता है कि भविष्य में जब भी स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को गढ़ने का अवसर आयेगा तो निश्चित ही नींव में गाँधी के वैश्विक अवदान उपस्थित रहेंगे l 


1918 के शुरुआत में गाँधी के इसी व्यापक प्रभाव को स्वीकारते हुए ब्रिटिश वाइसरॉय, दिल्ली में आयोजित वार कॉन्फ्रेंस में गाँधी को आमंत्रित करते हैं और जहाँ गाँधी एक नैतिक आशा में सहमति देते हैं और ‘अपील फॉर एनलिस्टमेंट’ के शीर्षक से पर्चा लिखकर भारतीय युवाओं से युद्ध में भाग लेने का आह्वान करते हैं। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन ने टर्की को परास्त कर दिया तो उन्होंने वहाँ के सुलतान खलीफा को गद्दी से उतार दिया और खिलाफत व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया l इसका प्रभाव, समस्त विश्व के मुसलमानों पर पड़ा l उनकी धार्मिक भावनाएँ इससे आहत हुईं थी l 1920 में मुस्लिम वर्ल्ड के दिल्ली आयोजन में महात्मा गाँधी ने उच्च स्वर में ब्रिटेन के इस नीति की आलोचना की और टर्की को सभी संभव सहायता करने की अपनी मंशा ज़ाहिर की l यहाँ, गाँधी सफलतापूर्वक आगामी भारतीय विदेश नीति के नींव की एक महत्वपूर्ण ईंट रख रहे थे l 1929 में कांग्रेस के द्वारा पूर्ण स्वराज्य की मांग पर अड़ने के पश्चात् अप्रैल 1930 से देश में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ l यह एक जनांदोलन था और यह ब्रिटिश हुकूमत पर एक भारी वैश्विक दबाव डाल रहा था l अंततः महात्मा गाँधी और लार्ड इरविन के बीच समझौता हुआ, आन्दोलन रोका गया और महात्मा गाँधी को द्वितीय चरण के गोलमेज कांफ्रेंस में कांग्रेस की ओर से अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया l 


द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने पर ब्रिटिश एक बार फिर महायुद्ध में भारतीय युवकों का सहयोग चाहते थे l इसके बदले में क्रिप्स ने यह वादा किया कि भारत को डोमिनियन स्टेटस प्रदान कर दिया जायेगा, इसका विरोध गाँधी ने यह कहकर किया कि यह तो एक लुढ़कते बैंक का पोस्टडेटेड चेक है l गाँधी सहित सभी भारतीय नेता, इस महायुद्ध में भारतीयों के झोंके जाने के विरुद्ध थे l इस सन्दर्भ में यदि अमेरिका को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल को ख़त लिखकर यह कहना पड़ा कि भारतीयों के लिए वे अपना पक्ष और भी नम्र करें तो यह एक सशक्त परिचायक है कि औपनिवेशिक भारत को भी वैश्विक स्तर पर सुना जाने लगा था l  ब्रिटेन के रुख में कोई खास तब्दीली न देख और भारत की सुदूर पूर्वी सीमा पर बढ़ते एक दूसरे साम्राज्यवादी देश जापान जो कि द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन के खिलाफ आगे बढ़ रहा था; महात्मा गाँधी ने राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा दिया l यह नारा एक साथ दोनों कैम्पों को सन्देश था कि भारत न ब्रिटिश पक्ष का साथी है और न ही जापान जैसे किसी दुसरे देश का उपनिवेश बनने को तैयार है l स्वतंत्रता के पश्चात् यदि भारत गुटनिरपेक्ष देशों में स्वयं को सहज पाता है और उसके दर्शन में उपनिवेशवाद के खिलाफ, असमता के खिलाफ एक प्रतिरोध दिखता है; साथ ही विश्व शांति की ओर जो उसकी प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है, उसकी जड़ें निश्चित ही गाँधी के उपर्युक्त निर्णयों से जल पाती हैं l 


भारतीय विदेश नीति के निर्माता जवाहरलाल नेहरु के नीति-निर्देशक के रूप में महात्मा गाँधी 


स्वतंत्रता पश्चात् जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री बने जिन्हें महात्मा गाँधी अपना राजनीतिक वारिस कहते थे। भारतीय विदेश नीति में गाँधी का प्रभाव यथार्थिक स्तर पर ढालने में नेहरु ने अपना अप्रतिम योग दिया l जवाहरलाल नेहरु की विदेश नीति के लगभग सभी आयामों पर गाँधी का प्रभाव देखा जा सकता है l समस्त विश्व में जब विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई और भारत सहित दुनिया के तमाम मुल्क आज़ाद होने लगे तो उस समय की दुनिया दो खाँचों में बंटी हुई थी l शीतयुद्ध का समय आसन्न था l देश या तो अमेरिकी कैम्प में थे अथवा सोवियत कैम्प में स्वयं को सहेज रहे थे l विश्व पिछले पचास सालों में दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका को देख चुका था और यह भी कि साम्राज्यवादी ताकतों ने किस तरह अपने जर्जर शोषित ऊपनिवेशों को भी इसमें धकेल दिया था। नवस्वतंत्र राष्ट्र जो कि सदियों शोषण के शिकार हुए थे और जिन्हें विकास का एक लंबा व दुर्घर्ष रास्ता तय करना था वे यदि विश्व-राजनीति में किसी कैंप राजनीति को चुनेंगे अथवा नहीं चुनेंगे, दोनों ही विकल्पों में उन्हें बेहद गंभीर चुनौतियों से भिड़ना था। यहीं पर जवाहरलाल नेहरू के लिए जो माध्यम मार्ग उपलब्ध था उसकी आधुनिक व्याख्या उनके नीति-निर्देशक महात्मा गाँधी न केवल कर चुके थे बल्कि कई अवसरों पर पूर्व ही उसे सफलतापूर्वक प्रयोग भी कर चुके थे। 


भारत जैसा विशाल देश यदि उन परिस्थितियों में गुटनिरपेक्ष आंदोलन को चुनता है तो इस निर्णय के लिए आवश्यक आत्मविश्‍वास जवाहरलाल नेहरू में महात्मा गाँधी के विश्व प्रसिद्ध सिद्धांतों सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह से उपजता है, इसमें संशय नहीं है। दो-दो विश्वयुद्धों वाले विश्व राजनीति में यथार्थवाद और आदर्शवाद दो ही प्रमुख विचारधाराएँ अपने समाधानों और सीमाओं के साथ उपलब्ध थीं, जिनमें किसी नए राष्ट्र का प्रमुख अपनी विदेश नीति का निर्वहन करे। यह अंततः राष्ट्र को किसी न किसी कैंप से जोड़ ही देता और राष्ट्र फिर न ही किसी स्वतंत्र विदेश नीति की परंपरा गढ़ पाता बल्कि किसी आसन्न युद्ध की आशंका में ही अपने विकास को स्थगित कर रहा होता। महात्मा गाँधी यहाँ अपने अहिंसात्मक व नैतिक गांधीवाद के साथ जवाहरलाल नेहरू का दार्शनिक निर्देशन करते दिखते हैं क्योंकि जवाहरलाल नेहरू का व्यक्तिगत झुकाव एक खास हद तक समाजवाद की ओर था। यदि नेहरू की विचारधारा में गाँधी का संस्पर्श हटा लें तो वह नैतिक आदर्शवाद जो नेहरू की विदेश नीति का मूल था और जो कवच बनकर अराजक वैश्विक संरचना में भारत को किसी अनापेक्षित ताप से बचाता है, उसकी संभावना ही विरल हो जाती। गाँधीवादी सिद्धांतों की चमक में नेहरू जी विदेश नीति ने अपने लिए जो एक उच्च नैतिक आधार निर्मित किया, उससे एक नवस्वतंत्र राष्ट्र को सहसा ही विश्व के प्रमुख देशों में स्थान दिला दिया। उत्तर-दक्षिण संवाद, नव आर्थिक क्रम की माँग, रंगभेद का विरोध, उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद का विरोध आदि ढेरों वैश्विक मांगों के केंद्र में यदि नेहरू, भारत को रख सके तो यकीनन इसमें गाँधी का योग अनदेखा नहीं किया जा सकता। भारत के विदेश नीति की स्वतंत्रता, नेहरू की पंचशील की नीति, निःशस्त्रीकरण की नीति, वैश्विक शांति पक्षधरता की भूमिका, राष्ट्रों से अहिंसक भागेदारी की नीति, पड़ोसी देशों से सीमा विवादों को परस्पर सम्मान व शांति से निपटाने की नीति, आदि जो निर्णायक तत्व भारतीय विदेश नीति की जो प्रस्तावना रचते हैं, उसमें गांधीवादी तत्वों का असर स्पष्ट झलकता है। 


स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले भी चूँकि जवाहरलाल नेहरू ही काँग्रेस के विदेश नीति संबंधी प्रस्तावों को मुख्यतया लिखा करते थे तो गाँधी का प्रभाव एक लंबे समय से अपनी निर्णायक भूमिका निभा रहा था। 1927 में ही काँग्रेस ने विदेश नीति पर अपने एक प्रस्ताव में स्पष्ट कर दिया था कि देश किसी भी प्रकार के औपनिवेशिक युद्ध में परिभाग नहीं करेगा और बिना भारतीय जन आकांक्षाओं के देश को किसी युद्ध में कत्तई नहीं झोंका जाना चाहिए। 


गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपनाने की नीति कितनी सफल रही यह इससे समझा जा सकता है कि शीत युद्ध के दौरान जबकि अधिकांश देश इधर या उधर के पक्षों से अपनी सुरक्षा अथवा बचाव में संलग्न थे, भारत अपने विकास कार्यों के लिए अमेरिका से सर्वाधिक अनुदान पाने वाला राष्ट्र बना। भारत के संबंध न सोवियत रूस से अधिक दूरी के थे और न ही अमेरिका से ही कोई खास दूरी में पनप रहे थे। कांगो मुद्दे पर भारत की अमेरिकी प्रशासन को दी गई सहायता बेहद कारगर रही। आगे 1950-53 के मध्य उपजे कोरियन युद्ध से निपटने में किए गए भारतीय शांति प्रयासों के लिए भारत को ‘न्यूट्रल नेशन रीपैट्रीयेशन कमीशन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। चालीस के दशक में भारतीय-चीनी शांति प्रयासों के लिए भारत को जिनेवा समझौतों के तहत बनने वाले ‘इंटरनेशनल कंट्रोल कमीशन’ की अध्यक्षता भी दी गई। यदि भारत गुटनिरपेक्षता से सर्वपक्षधरता की यात्रा कर सका और राष्ट्रहित की सुरक्षा अपने प्रारंभिक दिनों में कर सका तो इसके लिए नेहरू के साथ-साथ महात्मा गाँधी के सिद्धांतों और उनके वैश्विक प्रभावों को दिया जाना असंगत नहीं होगा। 


गाँधीवादी उपकरणों की वैश्विक उपस्थिति व विदेश नीति में इसकी समकालीन प्रासंगिकता 

महात्मा गाँधी के सिद्धांतों का असर ऐसा नहीं है कि केवल भारत की विदेश नीति में ही दिखलाई पड़ता है अपितु ढेरों देशों में लोगों ने, उनके नेताओं ने, उनकी संसदों ने जब-तब गाँधीवादी तरीकों से लोकतांत्रिक लक्ष्य हासिल किए हैं और उनके दार्शनिक योगदान को रेखांकित भी किया है। वैश्विक सत्याग्रह एक सिद्धांत के रूप में पूरे विश्व भर में प्रयुक्त किया जाता है। पाकिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खान को तो सीमांत गाँधी कहा ही जाने लगा था। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने रंगभेदी अभियानों में गाँधी को एक प्रेरक के रूप में देखा था। दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला, गाँधी के प्रभाव को स्वीकारते हैं। अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने शपथ ग्रहण में गाँधी को स्मरण करते हैं। अहिंसक अरब स्प्रिंग के आंदोलन निश्चित ही वैश्विक सत्याग्रह के उदाहरण हैं। विश्व ने पिछले दशकों में कई अहिंसक आंदोलन देखे हैं। इसप्रकार यह कहा जा सकता है कि गांधीवादी उपकरण विश्व राजनीति में न केवल प्रासंगिक हैं अपितु प्रायः प्रयोग में भी हैं। 


प्रायः यह कहा जाता है कि गाँधी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत आज के जटिल राष्ट्रगत संबंधों, अराजक वैश्विक राजनीति व्यवस्था की चुनौतियों एवं निर्मम वैश्वीकरण के दबावों में सर्वथा अनुपयुक्त और अप्रासंगिक है। किंतु, यह एक सरसरी तौर पर किया गया आकलन है। विश्व की व्यवस्थाएँ बहुधा किसी द्विपक्षीय विभाजन में बंटने को उकसाती हैं, यहाँ गांधीवाद सचेत हो मध्यम मार्ग की प्रेरणा देता है। यथार्थवाद जहाँ राष्ट्रहित को ही नैतिक मूल्य मान किसी देश को कोई भी कदम उठाने को कहता है और आदर्शवाद जहाँ राष्ट्रहित के लिए वार्ता व आर्थिक संबंधों को वरीयता देने को कहता है वहीं गाँधी का वैश्विक सत्याग्रह उच्च नैतिक मानवीय मूल्यों को वरीयता देने को कहता है, इससे एक सॉफ्ट पॉवर की निर्मिती विकसित होती है जो उस देश को एक साख प्रदान करती है। विश्व राजनीति में गाँधीवाद उन देशों के लिए एक मात्र विकल्प है जो अभी विकास की यात्रा में काफी पीछे हैं अथवा नए हैं और इस प्रकार वैश्विक सत्याग्रह विश्व को एक समता आधारित व्यवस्था की प्रेरणा भी देता है। 


परमाणु आयुधों की उपस्थिति ने वैसे भी प्रत्यक्ष युद्धों की संभावना पर एक विराम लगाया है, ऐसे में सॉफ्ट पॉवर की भूमिका बेहद बढ़ चुकी है। अमरीका के जोसेफ नाई ने जिस सॉफ्ट पॉवर की अवधारणा अस्सी के दशक में दी, उस दिशा में भारत, गाँधी के दिनों से ही चलने की कोशिश कर रहा है। चूँकि सॉफ्ट पॉवर की भूमिका समकालीन विश्व में निर्णायक होती जा रही तो ऐसे में गाँधीवादी उपकरण बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं। 


भारतीय विदेश नीति में भी जब भी भारत को किसी भी राष्ट्र से संबंधों की आयोजना करनी होती है तो पृष्ठभूमि में महात्मा गाँधी, भारत की मानवीय एवं लोकतांत्रिक साख को पुष्ट कर रहे होते हैं। महात्मा गाँधी का भारतीय होना विश्व राजनीति में भारत को एक त्वरित पहचान दिलाता है जहाँ से वार्ता के विभिन्न संस्तर आसान हो जाते हैं। विश्व राजनीति में साख और छवि से ही संबंधों का निर्वहन किया जाता है और भारत के लिए यह दोनों ही गाँधी के द्वारा निर्मित नैतिक राजपथ पर उपलब्ध होते हैं। महात्मा गाँधी, एक अनुकरणीय व्यक्तित्व के रूप में, अपने विचारों से एवं अपनी जीवनकालीन वैश्विक सक्रियता से जो भारत के लिए अर्जित किया है वही आज भारतीय विदेश नीति की थाती के रूप में हमारे पास उपलब्ध है, हमारे देश को यह किसी संकीर्ण खांचे में नहीं बाँधती, विश्व शांति के हमारे सं‍कल्पों को दृढ़ रखती है और किसी भी प्रकार के वैश्विक अन्याय व असमानता के विरुद्घ भारत को दृढ़तापूर्वक डटे रहने को निरन्तर प्रेरित करती रहती है। 


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