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दार्शनिक राष्ट्रदूत सर्वपल्ली राधाकृष्णन

साभार: दैनिक भास्कर 

साभार: गूगल इमेज 

दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा देश जब दुनिया की दुसरी सबसे बड़ी आबादी के साथ अनेकता में एकता के दर्शन कराता है, तो सहसा विश्वास ही नहीं होता। एक लंबे औपनिवेशिक अतीत के बाद आजाद हुए जिस देश को नेहरू का नेतृत्व मिला हो, गाँधी का जुटाया जनसमर्थन मिला हो, पटेल की कूटनीति मिली हो और सर्वपल्ली राधाकृष्णन का दार्शनिक अवदान मिला हो तो उस देश की एक राष्ट्र के तौर पर सततता का रहस्य फिर गहराई से समझ आता है। अपनी तरह का अनूठा पंथनिरपेक्ष देश जब विभिन्न धर्मों की मिट्टी पर सहिष्णुता का सौरभ महकाता है तो उसमें उन शब्दों का महती योगदान होता है जो 14 अगस्त के अंधियारी रात के आख़िरी घंटे में संविधान सभा में सर्वपल्ली राधकृष्णन द्वारा कहे गए-

“स्वराज्य ऐसे सहिष्णु प्रकृति का विकास है जो अपने मानव भाइयों में ईश्वर का रूप देखता है। असहिष्णुता हमारे विकास की सबसे बड़ी दुश्मन है। एक-दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णुता एकमात्र स्वीकार्य रास्ता है।” 

राधाकृष्णन के पूर्वज आंध्रप्रदेश के सर्वपल्ली गाँव से लगभग 170 किमी दक्षिण तमिलनाडु के एक धार्मिक गाँव तिरुतनी में आकर बस गए जहाँ पर 5 सितंबर, 1888 को राधाकृष्णन जी का जन्म हुआ। पिता की एक ही इच्छा थी कि बेटा आगे चलकर पूजारी बने और कुटुंब को श्रीलाभ हो। व्यक्ति की सफलता को देखने का यह भी एक नजरिया हो सकता है जब कोई अपने पिता के अरमानों को लांघकर अपने लिए एक और ही उच्चविमा गढ़ ले। पुजारी बनाने वाले पिता के पुत्र की नियति ने उसे प्रेजिडेंट बनाने की ख्वाहिश संजो रखी थी। सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बहुआयामी व्यक्तित्व को ज्यादातर लोग, ज्यादातर तरीकों से याद रख सकते हैं। शिक्षा क्षेत्र के लिए वे अध्यवसायी विद्यार्थी, उत्कृष्ट शिक्षाविद और महान अध्यापक हैं। दर्शन व साहित्य क्षेत्र के लिए वे गंभीर शोधार्थी, प्रबुद्ध मीमांसक, अद्भुत लेखक और शानदार वक्ता हैं। राजनीति क्षेत्र के लिए वे सौम्य प्रशासक, सफल कूटनीतिक एवं गरिमापूर्ण नेतृत्वकर्त्ता हैं।  

विद्यार्थी, अध्यापक, लेखक, दार्शनिक  
घर में सनातन हिंदू रीति-रिवाजों में पगे राधाकृष्णन की शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य विद्यालयों में हुई। आठ साल की प्राथमिक शिक्षा हरमंसबर्ग इवेन्जिकल मिशनरी स्कूल में हुई फिर अगले चार साल वेल्लोर के एलिजाबेथ रोडमैन वोरिस कॉलेज में बीते। बेहद प्रतिभाशाली विद्यार्थी राधाकृष्णन को छात्रवृत्ति मिलती रही। इसी दौरान आपका विवाह हुआ और पत्नी, पाँच पुत्रियों एवं एक पुत्र से आपका परिवार पूरा हुआ। सनातन हिंदू वैदिक संस्कारों वाले किशोर को अपनी शिक्षा  माध्यम से ईसाई धर्म को करीब से जानने को मिला। विवेकानंद द्वारा जगाए गए आत्मसम्मान की प्रेरणा से राधाकृष्णन के भीतर हिंदू धर्म को पाश्चात्य कसौटियों में देखने का अध्यवसाय निर्मित हुआ। मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज (1904-1906) के अपने परास्नातक दिनों में राधाकृष्णन ने प्रसिद्घ दार्शनिक प्रोफ़ेसर ए. जी. हॉग के निर्देशन में पाश्चात्य विचारों का गंभीर अध्ययन किया। 1908 से इसी कॉलेज में इनका अध्यापकीय जीवन शुरू हुआ और इसी बीच इन्होने संस्कृत भी सीखी। प्रसिद्घ अध्यापक राधाकृष्णन अपने विद्यार्थियों के बीच सहृदयी, स्पष्टवक्ता दार्शनिक के तौर पर आदरणीय रहे। 

अध्यापकीय अनुभव, अर्जित बोध और प्रांजल भाषासिद्ध राधाकृष्णन के पास अब एक ऐसी वाणी और ऐसी लेखनी थी, जिससे वे समूचे पश्चिमी जगत को संबोधित कर सकते थे। 1911 में आपका लेख ‘द इथिक्स ऑफ़ द भगवतगीता एंड कांट’ प्रकाशित हुआ। सनातन हिंदू दर्शन को समझने का सार वेदांत है और इसकी प्रस्थानत्रयी उपनिषद, ब्रह्मसूत्र व भगवतगीता है। पश्चिमी दर्शन में कांट की स्वीकार्यता अकाट्य रही है। ऐसे में इस आलेख ने राधाकृष्णन को एक ऐसे विचारक के रूप में प्रतिष्ठित कराया जो पूर्व और पश्चिम के बीच सेतु बनाने का दार्शनिक आधार दे सकता था। शंकर के अद्वैत वेदांत एवं अपने अंतः प्रज्ञा की अवधारणा का संगम राधाकृष्णन ने पश्चिमी दर्शन में किया। विश्वयुद्ध के तनावपूर्ण दिनों में 1914 से 1920 के बीच राधाकृष्णन, कविवर रबीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों से खासे प्रभावित हुए और ढेरो दार्शनिक-राजनीतिक आलेख लिखे।  

प्रवक्ता, प्रशासक व राष्ट्रनिर्माता 
1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित्त जार्ज वी चेयर पर राधाकृष्णन को पदप्रतिष्ठित किया गया। 1926 में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के अप्टॉन लेक्चर्स एवं 1929 में हिबर्ट लेक्चर्स में राधाकृष्णन का मशहूर सम्भाषण हुआ। इनपर आधारित उनकी दो पुस्तकें ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ लाइफ’ एवं ‘ऐन आइडियलिस्टिक व्यू ऑफ़ लाइफ’ प्रकाशित हुईं और इनसे राधाकृष्णन पश्चिमी जगत में राधाकृष्णन के प्रतिपादनों की धाक जम गयी। 1931 में नाइटहुड की उपाधि मिली लेकिन ‘सर सर्वपल्ली राधाकृष्णन’ से अधिक आपको ‘डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन’ का सम्बोधन प्रिय था। इसी साल इन्हें नवस्थापित आंध्र विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। पाँच साल बाद राधाकृष्णन को  ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के एच. एन. स्पेल्डिंग चेयर ऑफ़ ईस्टर्न रिलीजंस एंड एथिक्स पर पदस्थापित किया गया। मदनमोहन मालवीय जी के बुलावे पर 1939 में राधाकृष्णन भारत वापस लौटे और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कुलपति पद को स्वीकार किया। जीवन के इस बिंदु से राधाकृष्णन जी का सार्वजानिक राजनीतिक जीवन में प्रवेश हुआ। 1948 में नवस्वतंत्र राष्ट्र भारत की उच्च शिक्षा के प्रबंधन हेतु गठित यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन के चेयरमैन बनाये गए। शिक्षक की भूमिका को लेकर उनके मन में कोई रोमानी आदर्शवादिता नहीं थी, वह स्वतंत्र भारत के शिक्षकों के लिए उच्च वेतनमान व सुदृढ़ सामाजिक स्थिति के हिमायती रहे। 

संयुक्त राष्ट्रसंघ के शैक्षणिक-वैज्ञानिक-सांस्कृतिक अभिकरण यूनेस्को में राधाकृष्णन के भारतीय प्रयासों की चहुँओर सराहना हुई। शीतयुद्ध के समय जब दुनिया दो ध्रुवों अमेरिकी कैम्प व सोवियत कैम्प में बँटी हुई थी और उसमें भी जब नेहरू निर्गुट धारा को चुनकर भारत की सद्यप्राप्त स्वतंत्रता के प्रति किसी भी समझौते को उत्सुक नहीं थे; ऐसे में सोवियत संघ से संबंधों में ऊष्मा बनाये रखने के लिए नेहरू ने राधाकृष्णन को राजदूत बनाकर मास्को भेजा। वहाँ उनकी स्टालिन से हुई मुलाकात उतनी ही प्रसिद्घ हुई जितनी आगे चलकर बीजिंग में हुई उनकी माओ से हुई भेंट चर्चित रही। राधाकृष्णन, संविधान सभा के भी सदस्य रहे और स्वतंत्र भारत के उच्च सदन के पहले सभापति अर्थात भारत गणराज्य के पहले उपराष्ट्रपति नियुक्त किये गए। राजेंद्र बाबू के दो कार्यकाल के पश्चात् 1962 में आप देश के दूसरे राष्ट्रपति भी निर्वाचित हुए। 

दार्शनिक राष्ट्रपति 
राष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन के शपथ लेने पर विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल बेहद खुश हुए थे और उन्होंने इसे दर्शनशास्त्र का सम्मान कहा था। प्लेटो ने आदर्श राज्य के लिए दार्शनिक राजा की अवधारणा दी थी, भारत ने इसे अपनी आजादी के पन्द्रहवें साल अपने तरीके से चरितार्थ कर दिया था। राष्ट्रपति के रूप में केवल अपना चौथाई वेतनमान स्वीकार करने वाले राधाकृष्णन को जो कार्यकाल मिला वह बेहद ही चुनौतीपूर्ण रहा। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद सहित कई महापुरुष जो देश के प्रथम पंक्ति के नेताओं में शुमार थे, देश उन्हें खो चूका था। उन्होंने अपने पाँच साल के कार्यकाल में पाँच प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया। इसी कार्यकाल में देश पर दो आक्रमण चीन (1962) और पाकिस्तान (1965) ने किया। डेढ़ दशक पहले ही गणतंत्र बने राष्ट्र में शांतिपूर्ण शक्ति हस्तांतरण कराना खासा चुनौतीपूर्ण था जिसके सफलतापूर्वक निर्वहन ने भारत के लोकतंत्र की नींव को निश्चित ही और भी सुदृढ़ किया।  

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