Weekly Program on World Affairs

 



अब कप्तान इमरान- डॉ. श्रीश पाठक


आम चुनाव 2018 के परिणाम यह निश्चित करते हैं कि पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री तहरीके इंसाफ (पीटीआई) के इमरान खान होंगे। यह परिणाम चुनाव पंडितों के कयासों से थोड़ा विपरीत है। ज्यादातर का मानना था कि क़ौमी मजलिस (नेशनल असेंबली-निम्न सभा) इसबार त्रिशंकु रहेगी। नवाज़ शरीफ़ की पीएमएल (एन) पनामा पेपर्स से त्रस्त थी तो बिलावल भुट्टो की पीपीपी इसबार बिलकुल भी आक्रामक नहीं थी। इसके अलावा पाकिस्तानी राजनीति में उसके राज्य मुख्यधारा के दलों के पारम्परिक वोटबैंक भी माने जाते हैं, जो यह चुनाव परिणाम भी सिद्ध करते हैं। जैसे- पंजाब को पीएमएल (एन) का तो सिंध को पीपीपी का और खैबर पख्तूनख्वा को पीटीआई का पारम्परिक गढ़ समझा जाता है। बाकी राज्यों में इन बड़ी पार्टियों के बाद ज्यादातर धार्मिक पहचान वाले दल हावी रहते हैं। धार्मिक पहचान वाले दलों में ब्लेस्फेमी (ईशनिंदा) मुद्दे के साथ खादिम हुसैन रिजवी के आक्रामक नेतृत्व में सहसा मजबूत हुई पार्टी तहरीके लब्बाइक से कयास लगाया जा रहा था कि यह पार्टी छितराए धार्मिक कट्टर मतों को ध्रुवीकृत कर लेगी। ऐसी बाकी पार्टियों के मुकाबले इस पार्टी का प्रदर्शन कम से कम निराशाजनक नहीं कहा जायेगा क्योंकि अधिकांश जगहों पर यह नंबर दो की पार्टी रही। इससे यह भी पता चलता है कि अगले आम चुनावों तक यह पार्टी अपने पूरे दमखम के साथ चुनौती पेश करेगी। इन वजहों से ही ऐसा लगने लगा था कि संभवतः नेशनल असेंबली में किसी एक दल को भी सरकार बनाने लायक सीट न मिले। सभी का मानना था कि इमरान खान की पार्टी पीटीआई को अच्छी खासी बढ़त मिलेगी पर जिसतरह से न्यायपालिका, एनएबी और चुनाव आयोग ने एक के बाद एक ऐसे फैसले किये और ऐसे-ऐसे समय में किये जिनसे नवाज़ शरीफ और बिलावल की पार्टी को अपरोक्ष-परोक्ष नुकसान उठाना पड़ा और इमरान की पार्टी को जिससे सीधा फायदा पहुँचा, उससे कई चुनावी पंडित खुलकर कहने लगे थे- कि इमरान कप्तान बनेंगे। नवाज शरीफ़ और उनकी बेटी मरयम का आख़िरी समय में देश आकर गिरफ्तारी देने के फैसले से उम्मीद की गयी थी कि एक प्रकार की सहानुभूति उपजेगी पर वह भी कहीं दिखी नहीं।

क्रिकेटर इमरान अपने रिवर्स स्विंग के लिए जाने जाते रहे हैं। उनका प्रदर्शन यों ही चौंकाऊ रहता है, वह वापस आकर बढ़िया कर जाते हैं । व्यक्तिगत जीवन में भी उतार-चढाव रहा, उनके क्रिकेट जीवन में भी उतार-चढ़ाव रहा और ठीक इसी तरह उनके राजनीतिक जीवन को भी उतार-चढ़ावों से ही भरा कहेंगे। एक बात तो तय है कि इमरान जीतने में यकीन रखते हैं चाहे कितने ही रंग बदलने पड़ें। लाहौर में जन्मे पश्तून इमरान खान ने दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र विषय के साथ ऑक्सफ़ोर्ड से स्नातक किया है। यह पृष्ठभूमि उन्हें खासा आधुनिक सोच का बनाती है। क्रिकेटर इमरान खान की पारी काफी ग्लैमरस रही। सन्यास के बाद लौटे और पाकिस्तान को अपनी कप्तानी में वर्ल्ड कप दिलाया। फिर 1996 में अपनी नयी पार्टी के साथ राजनीतिक पारी खेलने के लिए आ जुटे। यकीनन, उन्हें किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया और वे खुद भी 2011 तक कुछ गंभीर नहीं लगे। इनकी तीनों बीबियों की पृष्ठभूमि ध्यान से देखें तो उससे भी अंदाजा लगता है कि उनकी प्राथमिकताएं क्रमशः बदली हैं। राजनीति में भी उनके कई रंग देखने को मिले। 1996 के इमरान, खासा आदर्शवादी रहे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 2008 के आम चुनावों का उन्होंने बहिष्कार किया था, फिर 2010-11 आते-आते उनमें एक चालाक आक्रामक राजनीतिज्ञ दिखने लगा। आज के इमरान जानते हैं कि बिना इस्टैब्लिशमेंट में पैठ बनाये पाकिस्तान की सत्ता तक पहुंचना नामुमकिन है। इमरान खान की आज की राजनीति के फॉर्मूले में दुनिया की दूसरी युवा आबादी को अपील करने वाली उनकी खिलंदड़ छवि है, पाकिस्तान के डीएनए में रचा धर्म है, इस्टैब्लिशमेंट की रीढ़ सेना को समर्थन करते हुए उसकी अनुशासित छवि भुनाने का शऊर है और उम्मीद रखने वालों के लिए ‘नया पाकिस्तान’ का जुमला है। इसका असर चुनाव परिणामों पर कुछ इस कदर हुआ कि पाकिस्तान के चुनाव-परिणाम मैप को देखने से लगता है कि एकमात्र पीटीआई पार्टीं ही सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी है। 

इमरान खान की जीत में कुछ और दूसरे महत्वपूर्ण अपरोक्ष कारकों का उल्लेख करना जरूरी है। चुनाव आयोग आख़िरी समय तक प्रत्याशियों की उम्मीदवारी ख़ारिज करता रहा। मतदान के तुरत बाद में पाकिस्तान में मतगणना की परम्परा है और फिर परिणामों की घोषणा कर दी जाती है, पर इसबार अचानक रात के दो बजे मतगणना रोक दी गयी और परिणाम तयशुदा समय से लगभग छप्पन घंटे की देरी से आया। पीएमएल (एन) के आवाज उठाने पर चुनाव आयोग ने प्रेस कांफ्रेंस किया और कारण तकनीकी बताकर पल्ला झाड़ लिया। बिलावल भुट्टो ने ट्विटर पर जगह-जगह फॉर्म-45 न देने की बात कही। फॉर्म-45 चुनाव मतगणना के बाद पार्टी एजेंटों को दिया गया आधिकारिक एवं हस्ताक्षरित वह प्रपत्र है जिसमें उस बूथ के मतदान और परिणाम की प्रत्येक जानकारी होती है। कई जगह इसे सादे कागज पर ही दे दिया गया। लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए ईयू ने पाकिस्तान के पिछले तीन आम चुनावों की भाँति इसबार भी अपना पर्यवेक्षक दल भेजा पर उनका वीजा क्लियरेंस में पाकिस्तान ने इसबार देरी की। इसबार दबे स्वर से लगभग सभी विश्लेषकों ने माना कि मीडिया सेंसरशिप अघोषित रूप से लागू रही। पर्यवेक्षक टीम के मुखिया माइकल गाहलर के हवाले से पाकिस्तान का डॉन जहाँ यह छापता है कि चुनाव संतोषजनक रहे और 2013 के आम चुनाव से भी स्वच्छ व निष्पक्ष रहे वहीं ब्रिटिश अख़बार द गार्जियन के अनुसार माइकल गाहलर ने इन चुनावों के मुकाबले 2013 के चुनावों को अधिक स्वच्छ व निष्पक्ष कहा। पहली बार ऐसा हुआ कि पांच प्रमुख दलों ने पुनर्मतदान एवं धांधलियों की कराने की माँग की। आतंकी घटनायें इस चुनाव में भी होती रहीं, बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा में चुनाव के दिन ही आत्मघाती हमला हुआ और तकरीबन पैतीस लोग मारे गए और पैतालीस से अधिक घायल हुए। सेना की भारी तैनाती जमी रही और चुनाव में फिर भी मत प्रतिशतता पहले के मुकाबले अधिक बताई जा रही। इस्टैब्लिशमेंट की पकड़ इस चुनाव में कुछ इस कदर है कि चुनाव परिणामों के बाद विपक्षी दलों ने मिलकर धांधलियों की जांच की मांग उठाने का फैसला किया लेकिन पीपीपी के बिलावल और पीएमएल के नवाज़ अंततः उस साझे विरोध से पीछे हट गए। 

पाकिस्तान भीषण जलसंकट और नकदी के संकट से गुजर रहा है। अर्थव्यवस्था जर्जर है और बेरोजगारी चरम पर है। अर्थव्यवस्था के लिए आईएमएफ से दूसरे आर्थिक पैकेज की माँग और पूर्ति कठिन होने वाली है। जल संरक्षण तकनीक व नहरों के निर्माण में समय व धन की दरकार है। उग्र आतंकवादी संगठनों से निपटना अगली बड़ी चुनौती है और इससे निपटना इसलिए भी आसान नहीं होगा क्योंकि इमरान के सुर धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए खासा अच्छे रहे हैं और वे उसी इस्टैब्लिशमेंट के हिस्से हैं, जिन्होंने इमरान खान की पार्टी को मदद पहुंचाई है। विदेश नीति में अमेरिका से होते खट्टे रिश्तों को पटरी पर लाना असली चुनौती होगी तो इसके साथ ही अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, रूस और चीन से संगति बिठाना आसान नहीं होगा। पिछले दो-तीन सालों से भारत के साथ रिश्ते भी बिलकुल जमे से हैं, जिद्दी इस्टैब्लिशमेंट के साथ उन जमी रिश्तों को आंच देना काफी मुश्किल होगा। यह रिस्की भी होगा क्योंकि पाकिस्तान में कहते हैं कि कोई चुनी हुई नागरिक सरकार तभी खतरे में आती है जब सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में सेना से इतर फैसले लेती है, जो कि उसका पारम्परिक क्षेत्र माना जाता है और इसमें ‘लाडले इमरान’ की दखलंदाजी भी सेना बर्दाश्त तो नहीं करेगी।    

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