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साभार: Toona |
भारतीय लोकतंत्र की विपुल संभावनाएं कुछ ऐसी हैं कि इसमें यह उम्मीद करना कि प्रधानमंत्री एक प्रशिक्षित सामरिक चिंतक हों, ठीक नहीं। इसलिए जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की विदेश नीति, संस्थागत प्रयासों से अधिक व्यक्तिगत करिश्मे से अधिक संचालित की गयी। आज़ादी के बाद जन्मे नेताओं की पीढ़ी के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भी यह करिश्मा है और उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल भी किया। विश्व-नेताओं को उनके पहले नाम से संबोधित करना हो या उन्हें गर्मजोशी से गले लगाना हो, मोदी हमेशा विदेश नीति में व्यक्तिगत सिरा खंगालते रहे। अमेरिका, फ़्रांस और जापान के द्विपक्षीय संबंधों में इसका असर भी महसूस किया गया। मोदी सरकार से विदेश नीति को लेकर की जा रही अपेक्षाओं के दो बड़े आधार थे। एक तो कांग्रेस से इतर पहली बार कोई दूसरा दल प्रचंड बहुमत से सत्ता को गले लगा रहा था दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जैसे नेता शपथ ग्रहण करने जा रहे थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने दिनों में न केवल कई विदेश यात्राएँ की थीं और व्यापारिक समूहों आदि से संबंध स्थापित किये थे बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के विश्वस्त के रूप में कूटनीतिक संदर्भ में मलेशिया और आस्ट्रेलिया भी भेजे जा चुके थे। नेहरू की तरह ही, प्रधानमंत्री बनने के पूर्व से ही नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में दिलचस्पी खासी व्यक्तिगत रही है। भारत की विदेश नीति को सामयिक, शक्तिशाली और दूरगामी बनाने के ऐतिहासिक अवसर का नरेंद्र मोदी को भान था और किसी तरह की कोई ऐतिहासिक हिचक उनके सामने नहीं थी।
चुनाव के समय लिए गए अपने कठोर प्रतिक्रियावादी रुख से उभरी आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए शपथ ग्रहण समारोह में सभी पड़ोसी राष्ट्रों के प्रमुखों को आमंत्रित कर नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वयं से उम्मीदों के पर लगा दिए। इराक से सफलतापूर्वक बचाई गयीं 46 नर्सों ने आश्वस्त किया कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ टीम मोदी, सशक्त और अपने विज़न में स्पष्ट है। फिर शुरू हुई मोदी की सतत विदेश यात्रा। कुल लगभग 36 विदेश यात्राओं के साथ, प्रधानमंत्री मोदी कोई 56 देशों की ज़मीन पर पाँव रख चुके हैं। इनमें कई देश ऐसे रहे, जहाँ अरसे बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री पहुँचा अथवा मोदी पहली बार पहुँचे। विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए भी यह एक ‘जुड़ाव’ का मौका था और इससे देश को सॉफ्ट पॉवर के रूप में भी स्थापित करने में मदद मिली है । बहुत सारे देशों में द्विपक्षीय वार्ताएं जो ठिठकी पडी थीं, वह पुनः शुरू हुई हैं।
यह सही है कि अपनी आर्थिक क्षमता, सांस्कृतिक प्रभाव और पिछली सरकारों की वैश्विक सक्रियता से वैश्विक पटल पर भारत की एक अहमियत गढ़ी जा चुकी थी पर मोदी की एक्टिव फॉरेन पॉलिसी ने विश्व को अवश्य यह दिखलाया कि भारत अपनी वैश्विक भूमिका समझता है। पिछले चार साल, वैश्विक राजनीति के लिहाज से बेहद अनिश्चित रहे हैं, कोई खास पैटर्न अकेले इसकी व्याख्या नहीं कर सकता। दुनिया के महत्वपूर्ण देशों यथा- चीन, रूस, जापान, जर्मनी आदि देशों में शक्तिशाली नेतृत्व बना हुआ है और विश्व, द्विपक्षीयता से बहुपक्षीयता के मध्य हिचकोले लेता रहा। रूस ने चीन, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया के साथ अपनी संगति बिठाई तो जापान की पहल पर अमेरिका ने भारत और आस्ट्रेलिया को हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ज़िम्मेदारी दी। ट्रम्प का अमेरिका अपनी नीतियों में इतना मोलतोल वाला और चौंकाऊ रहा कि भारत सहित उसके साथी देश अपनी-अपनी विदेश नीति में कोई सुसंगतता स्थापित ही नहीं कर पाए। यूपीए सरकार की तरह ही बढ़ते गैर-पारंपरिक असुरक्षाओं के युग में भी पारंपरिक हथियारों की खरीददारी में मोदी सरकार अव्वल रही और ईयू, फ़्रांस, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि से व्यापारिक-सामरिक समझौते भी संपन्न हुए। चाबहार प्रोजेक्ट, आईसीजे में दलवीर भंडारी की जीत, शस्त्र व तकनीक नियंत्रण की चार समितियों में से एमटीसीआर, डब्ल्यू ए और ऑस्ट्रेलिया समूह सहित तीन की सदस्यता, कुलभूषण जाधव की फाँसी पर रोक, कई देशों से आणविक समझौते करना, एफटीए हस्ताक्षर करना, चागोस प्रायद्वीप मुद्दे पर ब्रिटेन विरुद्ध और मारीशस के पक्ष में मतदान करना, आसियान राष्ट्रप्रमुखों को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित करना आदि यकीनन नरेंद्र मोदी सरकार की उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं।
मोदी सबसे अधिक विफल अपने इर्द-गिर्द पड़ोस में हैं। एक भूटान को छोड़कर कहीं और भारत अपने संबंध संजो नहीं पाया है। आक्रामक चीन के सापेक्ष हमारी तैयारी बेहद शिथिल है। नौकरशाही पर नकेल कसने में असफल मोदी की विदेश नीति में न कोई रचनात्मक दृष्टि दिखी न ही तारतम्यता। तारतम्यता के अभाव ने ही मोदी-डॉक्ट्रिन जैसी कोई चीज स्थापित नहीं करने दिया है। सत्ता के आखिरी महीनों में मोदी कुछ उल्लेखनीय बटोरने की हड़बड़ी में दिखते हुए एक बार फिर चीन, रूस आदि से संपर्क साध रहे हैं पर नेहरू बनना उनके लिए कठिन हैँ और पटेल ने कोई नज़ीर छोड़ी नहीं है।
*लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार व सम्प्रति गलगोटियाज यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं।
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