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अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ लार्ड
पामर्स्टन ने ठीक ही कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ना तो कोई हमारा स्थायी
मित्र है, और ना ही कोई
स्थायी शत्रु, बल्कि हमारे हित स्थायी हैं, और यह प्रत्येक
राष्ट्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने हितों की पूर्ति करे. इस समय, विश्व राजनीति
में जिस प्रकार नए समीकरण उभर रहें हैं, उसे देखकर लगता है कि भारत-अमेरिकी संबंध
इसका अच्छा उदाहरण है. भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चमत्कारिक व्यक्तित्व
और नेतृत्व की अनूठी शैली ने भारत की विदेशनीति को एक नया मोड़ दिया है, जिसके कारण,
एक ओर जहाँ विदेशनीति को अभूतपूर्व गति मिली है, वहीँ दूसरी ओर, भारत के वैदेशिक
संबंधो में तेज़ी से प्रगाढ़ता आयी है. पी. एम. मोदी ने सफलतापूर्वक भारतीय
विदेशनीति के आधारभूत सिद्धांतो में बदलाव करके, विदेशनीति को आदर्शवादी विचारधारा
के मार्ग से हटाकर यथार्थवादी विचारधारा के मार्ग की ओर अग्रसर किया है. यह उनकी
दूरदर्शिता है कि आज भारत विश्व-पटल पर अमेरिका का सबसे करीबी मित्र बन गया है.
साथ ही, विश्व के अन्य प्रभावशाली देशों की यात्रा करके, व्यक्तिगत स्तर पर
संबंधों को बढ़ावा दिया है. विश्व-पटल पर भारत की नईं पहचान बनाने के साथ ही, दूसरें
राष्ट्रों को “मेक इन इंडिया” कार्यक्रम के ज़रिये भारत में निवेश करने के लिए
आमंत्रित भी किया है. भारत-जापान संबंध इसका ताज़ा उदाहरण हैं.
विश्व में भारत की उभरती हुई सकारात्मक छवि
को देखकर लगता है कि अब भारत विश्व मामलो में अपनी निर्णायक भूमिका निभाने के लिए तैयार
है जिसका श्रेय पी. एम. मोदी को जाता है. लेकिन दूसरी ओर, भारत के लिए कड़ी
चुनौतियां भी खड़ी हो गयीं हैं जिसके लिए मंथन करना भी जरूरी है. एक ओर, जहाँ भारत
अमेरिका के बहुत करीब आया, वहीँ दूसरी ओर, भारत अपने परम्परागत मित्र रूस, जिसने
हमेशा संकट के समय भारत का साथ दिया, उससे दूर जा रहा है. संबंधों में लगातार खाई बन
रही है. परिणामतः रूस इस बढ़ती हुई खाई को पाटने के लिए पाकिस्तान के साथ संबंधों
को बढ़ा रहा है. गौरतलब है कि पहले भारत रूस से सुरक्षा संबंधी सामग्री एवं हथियार
खरीदता था जोकि अब इस्राएल और अमेरिका भारत की प्राथमिकता सूची पर हैं. रूस भारत
की विदेशनीति में हुए बदलाव को बख़ूबी समझ रहा है, इसी को केन्द्रित करते हुए
मास्को ने इस्लामाबाद की ओर हाथ बढ़ाया, और हाल ही में, दोनों राष्ट्रों की सैनाओं ने
संयुक्त होकर सफलतापूर्वक सैन्य-अभ्यास संपन्न किया. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मामलों
के जानकार, डॉ श्रीश कुमार पाठक कहते हैं कि भारत-अमेरिकी संबंधों के पीछे मुख्य
कारण रूस का, वर्तमान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के प्रभावशाली नेतृत्व में, एक
विश्व शक्ति के रूप में उभरना एवं रूस और चीन के बीच संबंधों का विकसित होना है.
साथ ही, यह स्वाभाविक भी है कि “मित्र का मित्र अपना मित्र होता है”. इस प्रकार
रूस और पाकिस्तान के मध्य संबंधों के लिए एक नया मार्ग स्वतः ही बन रहा है. उधर रूस
और चीन दोनों अमेरिका के धुर-विरोधी हैं, यह दोनों राष्ट्रों के मध्य सामान्य
बिन्दू भी है. इस दृष्टिकोण से, भारत के लिए अब एक ही विकल्प बचता है जोकि विश्व
की दूसरी शक्ति अमेरिका है.
साथ ही, भारत का चीन की ओबोर का नीति का
हिस्सा न बनना और भारत-चीन के मध्य डोकलाम विवाद, दोनों ही घटनाओं से स्पष्ट होता है
कि भारत-चीन के संबंध अच्छे न होने के
कारण शत्रुता लगातार बढ़ रही है. इसके अतिरिक्त, चीन पाकिस्तान को आर्थिक, सैन्य,
एवं तकनीकी सहायता देकर भारत के विरूद्ध दक्षिण एशिया में पाकिस्तान की स्तिथि को
मज़बूत करता है ताकि इस क्षेत्र में शक्ति-संतुलन बना रहे. भारत-अमेरिका संबंध इस
शत्रुता को और गहरा करता है. दूसरी ओर, रूस और चीन के संबंधों में प्रगाढ़ता तेज़ी
से बढ़ रही है. इस प्रकार, विश्व-पटल पर एक प्रभावशाली गुट रूस-चीन-पाकिस्तान बनकर
उभर रहा है जोकि क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत-अमेरिका के भू-राजनैतिक
हितों के लिए हानिकारक होगा. चाणक्य का कथन है कि “शत्रु का शत्रु अपना मित्र होता
है.” यह प्रभावशाली गुट इसी नीति का परिणाम है. उधर, पाकिस्तान के द्वारा समर्थित
आतंकवादी गतिविधियों के कारण, इस्लामाबाद और वाशिंगटन के बीच संबंधों में लगातार खटास
बढ़ रही हैं, और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का नज़रिया भी पाकिस्तान को लेकर
सकारात्मक नहीं दिख रहा है, जिसके कारण पाकिस्तान ने भी वैश्विक समीकरणों को
भांपते हुए रूस के साथ हाथ बढ़ाने में एक क्षण की भी देरी नहीं की. यह बात तो साफ़
है कि इस्लामाबाद अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए किसी के भी साथ हाथ मिला
सकता है. दूसरी ओर, इस उभरते हुए गुट के खिलाफ़, अमेरिका-भारत-जापान का गुट बन रहा
है, फलतः विश्व राजनीति में जिस प्रकार नए राजनैतिक समीकरण उभर रहें हैं उससे
प्रतीत होता है कि एक बार फिर विश्व में शीतयुद्ध की तरह दो गुट बन रहे हैं. लेकिन
इस बार, भारत रूस के साथ न खड़ा होकर अमेरिका के साथ खड़ा है. एक बात और, वेनेज़ुएला
मे आयोजित गुट-निरपेक्ष देशों की बैठक में भारतीय प्रधानमंत्री का शामिल न होना, पी.
एम. मोदी की विदेशनीति में आधारभूत परिवर्तन का संकेत है कि भारत अब गुट-निरपेक्षता
की नीति से पीछे हट रहा है. और भारत का यह निर्णय इस प्रभावशाली गुट की अप्रासंगिकता
को दर्शाता है.
जहाँ एक ओर, विश्व राजनीति में भारत का कद
बढ़ रहा है, वहीँ दूसरी ओर, अपने पड़ौसी देशों के साथ भारत के संबंध लगातार खराब हो
रहें हैं जिनमें मुख्य रूप से पाकिस्तान और नेपाल शामिल हैं. विद्वानों का मानना
है कि पी. एम. मोदी की विदेशनीति का जादू पड़ौसी देशों के ऊपर नहीं चल पाया लेकिन शरुआत
बहुत अच्छे ढंग से की गई थी लेकिन चीन का प्रभाव उनपर अभी भी बना हुआ है, जिसके
लिए पी. एम. मोदी को पड़ौसी देशों के लिए अपनायी गयी नीति पर पुनर्विचार करना
चाहिए. साथ ही, भारत अमेरिका के साथ संबंधों को बढ़ाये लेकिन रूस की कीमत पर नहीं.
मास्को का नईं दिल्ली से अलग होना, चीन और पाकिस्तान की स्थिति को मज़बूत करेगा
जोकि भारत के हितों के लिए अच्छा नहीं होगा.
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