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भारतीय कूटनीति ने कई बार यथार्थपरक पक्ष दिखलाया है और इससे यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति में एक मजबूती तो दिखी ही, साथ ही समय-समय पर उसमें जरूरी लोच भी देखने को मिला। कहना होगा कि भारत-अमेरिका के रिश्ते जिस बेहतर तरीके में चल रहे हैं, दुनिया भर के अलग-अलग मंचों पर अमेरिका से इतर राय रख पाना आसान तो नहीं ही है। खासकर अमेरिका जो कि विश्व राजनीति में पहले से ही अपनी तुरत और तय राय रखने के लिए जाना जाता है और ट्रम्प का अमेरिका इसमें कुछ और कदम आगे ही है। इसमें यह भी जोड़ने की जरुरत है कि भारत के पड़ोस में एक विश्व शक्ति चीन है, जिससे हालिया डोकलम विवाद के बाद चीजें मुश्किल ही हुई हैं और इसलिए भी हमें अमेरिका का मजबूत साथ चाहिए ही। पर फिर भी विश्व राजनीति में ऐसे मौके तलाशना, जिसमें कोई जमीनी नुकसान भी न हो और जिससे यह भी दिखे कि भारत की विदेश नीति केवल अपने शर्तों से चलती है; तो यकीनन इसे भारत की स्मार्ट कूटनीति कहा जाएगा। क्रिकेट की भाषा में कहें तो एक ख़राब गेंद को पहले पहचाना जाय और फिर मनमाफिक शॉट उसपर जमाया जाय ।
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में भारत के उम्मीदवार दलवीर भंडारी के चुनाव में सामने ब्रिटेन के होने पर चुनौती कठिन थी। ब्रिटेन अमेरिका का एक अरसे से सामरिक भागीदार है। किन्तु आम सभा और सुरक्षा सभा में माहौल भांपते हुए धीरे-धीरे भारत के पक्ष में समर्थन जुटाने की भारतीय विदेश अधिकारियों की मेहनत सचमुच तारीफ के काबिल रही। आखिरकार, ब्रिटिश उम्मीदवार ने अपनी दावेदारी ही वापस ले ली। इसके पहले जून में भी संयुक्त राष्ट्र में भारत ने ब्रिटेन के खिलाफ मॉरीशस के उस प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया था जिसमें चागोस द्वीपसमूह के डियागो गार्सिआ द्वीप के मालिकाना हक़ के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस जाने की बात कही गयी थी। डियागो गार्सिआ 1815 से ही फ़्रांस के बाद ब्रिटेन के पास रहा पर पिछले कई दशकों से यह ब्रिटिश-अमेरिकी सामरिक अड्डा बन गया है जिसमें अब भारत की भी भागीदारी है। तथ्य तो यह है कि चीन की पर्ल ऑफ़ स्ट्रिंग्स नीति से उपजे भय को भारत यहीं अमेरिका के साथ मिलकर डियागो गार्सिआ से ही संतुलित करता है।
अब ब्रिटिश मंशा के विरुद्ध वोट करना ऊपरी तौर पर लगता है कि भारत ने अपने हितों के खिलाफ ही वोट कर दिया। पर ऐसा है नहीं। समझना होगा कि ताईवान पर मारीशस चीन को इस उम्मीद में समर्थन करता है कि किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय में चीन सुरक्षा परिषद् में अपने वीटो से मारीशस के हित सम्हालेगा, ऐसे में मारीशस के खिलाफ वोट करना भारत का अपने जिओ-पोलिटिकल (भू-राजनीतिक) हकीकतों से कन्नी काटना होता। फिर, यह प्रस्ताव महज इतना ही कहता था कि यह मामला इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में ले जाया जाय। वहाँ इंटरनेशनल लॉ के लिहाज से सुनवाई होगी और हेग के उस कोर्ट के जजों के पैनल में एक जज वहाँ भारतीय भी होगा। सिर्फ इस स्मार्ट कदम से भारत ने दिखाया कि भारत इंटरनेशनल लॉ की इज्जत करते हुए किसी भी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में यकीन रखता है और भारत की विदेश नीति स्वतंत्र है।
भारत की स्मार्ट कूटनीति की झलक अभी एक और मामले में सामने आयी । एक चुनावी वादे को पूरा करते हुए ट्रम्प ने जेरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर अमेरिकी एम्बेसी को वहीं ले जाने की बात की। ट्रम्प के इस बेवक्त के स्टंट के खिलाफ मध्य एशियाई देशों की अगुवाई में संयुक्त राष्ट्र की महासभा में एक प्रस्ताव पेश किया गया, जिसमें द्विपक्षीय विवाद को किसी तीसरे के हस्तक्षेप के बिना सुलझाने की वकालत की गयी। यह भी एक इंटरनेशनल लॉ के हिसाब से लिया गया पक्ष है। भारत ने इस प्रस्ताव में पक्ष में वोट करते हुए इस मामले में अपनी फलस्तीन मुद्दे पर चली आ रहे पुराने स्टैंड का हवाला दिया। भारत का यह वोट अमेरिका और इजरायल के खिलाफ माना गया। प्रधानमंत्री मोदी इजरायल की यात्रा करके आये हैं, ऐसे में भारत का यह कदम चौंकाऊ लगता है। खासकर तब, जब मोदी हार्डलाइनर माने जाते हैं और कोई भी विश्लेषक भारतीय राष्ट्रीय हितों के हिसाब से अमेरिका-इजरायल को फलस्तीन के सापेक्ष नहीं रखेगा। पर, भारत का यह एक स्मार्ट कदम था। यह प्रस्ताव एक प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय विधि की वकालत तो करता ही था, इस संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से जमीन पर कोई तब्दीली नहीं होनी थी। फिर, संयुक्त राष्ट्र में बहुमत देशों का जो रुख था उसे महसूस करते हुए वोट करना ही जरूरी था। अब, जबकि अमेरिका इतने सारे राष्ट्रों के खिलाफ अपना गुस्सा दिखा तो सकता है, पर जतला नहीं सकता; तो इस कदम का फ़िलहाल कोई कूटनीतिक नुकसान भी नहीं होने जा रहा। अभी इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू अपनी छः दिवसीय भारत की यात्रा पर हैं जिनका मोदी ने खुले बाँहों से स्वागत किया। नेतान्याहू ने भी मोदी के ‘आई फॉर आई (इंडिया फॉर इजरायल एंड इजरायल फॉर इंडिया) ’ का जवाब ‘आई टी स्क्वायर्ड (इंडिया इजरायल टाइज फॉर टुमॉरो)’ से दिया है। अब जबकि इजरायल ने भारत से मुक्त व्यापार समझौते की उम्मीद करके 102 इजरायली कंपनियों के 130 प्रतिनिधियों के साथ अपने प्रधानमंत्री नेतान्याहू को भारतीय सरजमीं पर भेजा है, समझा जाना चाहिए कि इससे अमेरिकी राजनीति में प्रभावी इवेंजिकल्स और यहूदी आबादी भी खुश होगी।
चीन का उभार अमेरिका को भारत के साथ सामरिक संबंध बनाये रखने को विवश करता है और यह भारत के लिए भी उतना ही सही है। चूँकि, विश्व-राजनीति में सभी के हित अधिक या कम सभी से जुड़े हैं, सो यह उचित ही है कि भारत एक स्मार्ट कूटनीति से ही अपना राष्ट्रहित संजोते हुए आगे बढे।
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Comments
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