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अभी हाल ही में, अमेरिकी विदेश मंत्री, रेक्स टिलरसन द्वारा दक्षिण एशिया की यात्रा कई मायनों में
महत्वपूर्ण रही, जिसके द्वारा अमेरिका ने एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास किया.
इस रणनीति के अंतर्गत इस क्षेत्र में बढ़ते हुए कट्टर-आतंकवाद को रोकना,
अफ़ग़ानिस्तान में शान्ति स्थापित करना, पाकिस्तान के ऊपर लगाम कसना तथा अफ़ग़ानिस्तान
में भारत की भूमिका को बढ़ाना, वहीँ दूसरी ओर, इस क्षेत्र में रूस और चीन के बढ़ते
हुए प्रभाव को सीमित करना है. ज्ञात हो कि दक्षिण एशिया का विश्व राजनीति में आरम्भ
से ही प्रमुख स्थान रहा है, जहाँ एक ओर पश्चिम एशिया और मध्य एशिया के विशाल ऊर्जा
स्रोत हैं, वहीँ दूसरी ओर दक्षिण-पूर्व एशियाई देश हैं. उत्तर में चीन और रूस स्थित
हैं, तथा दक्षिण में हिन्द महासागर, और डिएगो गार्सिया का हिन्द महासागर में
अवस्थित होना इस क्षेत्र में अमेरिकी उपस्थिति को दर्शाता है. यह रणनीतिक क्षेत्र पश्चिम
एशिया, मध्य एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया एवं हिन्द महासागर के मध्य एक संधि का काम
करता है. इस प्रकार, दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक स्थिति इस क्षेत्र को सामरिक महत्व प्रदान करती है, और इसी कारण, द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद से यह क्षेत्र महाशक्तियों का अखाड़ा बना हुआ है. हाल ही में,
ट्रम्प प्रशासन के द्वारा नई दक्षिण एशिया नीति की घोषणा की गयी जिसके अंतर्गत
अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और भारत को सम्मिलित किया गया है. इस नीति के द्वारा अफ़ग़ानिस्तान
के अन्दर राजनीतिक स्थिरता लाना, तथा सीमा पार से की जा रही आतंकवादी गतिविधियों
को रोकना. इसके अतिरिक्त, ट्रम्प प्रशासन चाहता है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में “आधारिक
संरचना के पुनर्निर्माण” में निर्णायक भूमिका निभाये क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान इस
क्षेत्र में “बफर राज्य” का काम करता है. यदि अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता
बनी रहती है तो रूस और चीन इसका लाभ उठाकर भविष्य में भारत और अमेरिका के सामरिक हितों
लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी कर सकतें हैं.
ट्रम्प प्रशासन की इस नीति से प्रतीत होता है कि भारत अमेरिका की दक्षिण
एशिया नीति में एक मज़बूत साझीदार है. लेकिन इस्लामाबाद इस बात को लेकर कभी भी
तैयार नहीं होगा कि नई दिल्ली अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करे या
दोनों राष्ट्रों के मध्य संबंधों में प्रगाढ़ता आये, क्योंकि पाकिस्तान शीतयुद्ध के
बाद से अफ़ग़ानिस्तान में अपना प्रभाव बनाये रखना चाहता है. पाकिस्तान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान
में अपनाया गया “सामरिक गहराई का सिद्धांत” के अंतर्गत, इस्लामाबाद काबुल में एक
“कठपुतली सरकार” का गठन करना चाहता है जिसके ज़रिये पाकिस्तान अफ़ग़ान घरेलू राजनीति
में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर सके. साथ ही, अफ़ग़ानिस्तान में भारत के बढ़ते हुए प्रभाव
को रोकना इस्लामाबाद का मुख्य उद्देश्य है. लेकिन इस सन्दर्भ में विशेष बात यह है
कि ट्रम्प प्रशासन द्वारा पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान में भारत की
भूमिका को बढ़ाने की बात कर रहा है. दूसरी ओर, यह भारत के क्षेत्रीय हितो को पूरा
करने के लिए यह बहुत ही अच्छा अवसर है जिसके द्वारा नईं दिल्ली अफ़ग़ानिस्तान में
पाकिस्तान के प्रभाव को कम करने के साथ ही काबुल और वाशिंगटन दोनों के साथ कूटनीतिक
संबंधों को प्रगाढ़ कर सकती है.
साथ ही, चीन और रूस का इस क्षेत्र में शक्तिशाली होना, भारत-अमेरिका के
भू-राजनीतिक हितों के लिए खतरा उत्पन्न करता है. चीन-पाकिस्तान के बीच पहले से ही
मधुर संबंध हैं और “चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-गलियारा” एवं “ओबोर नीति” इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. इस्लामाबाद की
सहायता से चीन पाकिस्तान के दक्षिण में ग्वादर नामक पत्तन का विकास कर रहा है
जिससे चीन के लिए हिन्द महासागर में प्रवेश करने का मार्ग खुल जाता है लेकिन यह
भारत और अमेरिकी हितों के लिए लाभदायक नहीं है. गौरतलब हो कि चीन भारत को घेरने के
लिए भूमि और समुद्र दोनों प्रकार की नीतियों का प्रयोग कर रहा है. इसके अतिरिक्त,
चीन पाकिस्तान को वित्तीय सहायता, तकनीकी उपकरण और सामरिक हथियार दे रहा है जिससे
इस क्षेत्र में भारत और पाकिस्तान के मध्य शक्ति-संतुलन स्थापित हो सके. साथ ही, जबसे
भारत-अमेरिका के बीच संबंधों में वृद्धि हुई है तो रूस ने पाकिस्तान को तवज्जो
देना शुरू कर दिया है. रूस पाकिस्तान को दक्षिण एशिया में भारत का विकल्प के रूप
में देख रहा है. वहीँ दूसरी ओर, जबसे पाकिस्तान-अमेरिकी संबंधों में खटास आयी है
तो पाकिस्तान ने रूस के साथ रिश्तों को बढ़ाना शुरू कर दिया है. अब पाकिस्तान के
रूस और चीन दोनों के साथ मधुर संबंध विकसित हो रहे हैं. दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय
राजनीतिक समीकरण नाटकीय ढंग से बदल रही है, और परिणामस्वरूप, दक्षिण एशिया में, रूस-चीन-पाकिस्तान
के द्वारा नया गुट जन्म ले रहा है जो कि भविष्य में भारत और अमेरिका के लिए संकट
पैदा कर सकता है, इसी उभरते हुए ख़तरे को दृष्टिगत करते हुए ट्रम्प प्रशासन ने दक्षिण
एशिया में अमेरिका-भारत-अफ़ग़ानिस्तान को मिलाकर एक विरोधी गुट बनाने की रणनीति
बनायीं है जिसके ज़रिये इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन स्थापित हो सके.
उधर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रभावशाली नेतृत्व में, लगातार
वैश्विक स्तर पर, भारत की साख़ बन रही है और विश्व के शक्तिशाली देशों के साथ
संबंधों में लगातार प्रगाढ़ता आ रही है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भारत-अमेरिकी संबंध
हैं. साथ ही, पी. एम. मोदी ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि भारत किसी भी देश के
साथ शर्तों से बंधा हुआ नहीं है और अपने हितों को ध्यान में रखते हुए संबंधों को
विकसित कर रहा है. विद्वानों का मानना है कि २१वीं सदी भारत-अमेरिकी संबंधों की
सदी है, इसका आरम्भ हो चुका है. भारत अब अमेरिका की दक्षिण एशिया नीति की न सिर्फ
धुरी में है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी दोनों देश मज़बूत रणनीतिक साझीदार के तौर पर
उभरने के लिए तैयार है.
वहीँ दूसरी ओर, यह बात ध्यान देने
योग्य है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस सप्ताह दक्षिण-पूर्व एशियाई
देशों दौरे पर हैं, संभावना है कि इस दौरान यदि ट्रम्प-जिनपिंग के मध्य “रचनात्मक बातचीत” के ज़रिये कोई समाधान
निकल आता है तब अमेरिका अपने आर्थिक हितों को दृष्टिगत करते हुए चीन की “ओबोर नीति” से जुड़ जायेगा तो यह भारत की विदेशनीति के लिए बहुत ही जोरदार झटका होगा.
इससे पाकिस्तान और अमेरिका के बीच रिश्तों में आयी खटास को कम करने का अवसर मिलेगा
तथा पाकिस्तान की दक्षिण एशिया में स्थिति मज़बूत होगी. दूसरी अहम् बात यह है कि इस
क्षेत्र में चीन-अमेरिका-रूस-पाकिस्तान एक ही मंच पर खड़े नज़र आयेंगे और अमेरिका के
दोनों हाथों में लड्डू होंगें और यदि चीन और अमेरिका के बीच कोई समाधान नहीं
निकलता है तो अमेरिका की रणनीति पूर्ववत बनी रहेगी. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के
विशेषज्ञ लार्ड पामर्स्टन ने ठीक ही कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ना तो
कोई हमारा स्थायी मित्र है, और ना ही कोई स्थायी
शत्रु, बल्कि हमारे हित स्थायी हैं, और यह प्रत्येक
राष्ट्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने हितों की पूर्ति करे.
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