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जिहाद जारी रखेगा पाकिस्तान - डॉ. आशीष शुक्ल

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पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने से लेकर अब तक बहुत से ऐसे  विरोधाभासों से जूझता रहा है जिनसे निकट भविष्य में भी छुटकारा मिलने की उम्मीद नहीं है| सेना प्रमुख की राजनीतिक सक्रियता और लगातार बढ़ती हुई ताकत इसी तरह का एक विरोधाभास है| कहने को तो पाकिस्तान में लोकतंत्र है, जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार है, प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट है, लेकिन साथ ही यह भी एक सर्वविदित तथ्य है कि राष्ट्रीय सुरक्षा तथा राष्ट्रीय हितों से सम्बंधित मामलों में सेना का एकाधिकार है| पाकिस्तान में सेना-प्रमुख की स्थिति एक वास्तविक शासक की तरह है जिसके शब्दों/आदेशों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है|

अभी हाल ही में पाकिस्तान ने अपना ५२वाँ रक्षा दिवस मनाया जिसके दौरान सेना-प्रमुख द्वारा रावलपिंडी में उर्दू में दिया गया भाषण काफी महत्वपूर्ण है| यह भाषण पूरी तरह से एक राजनीतिक भाषण था जिसमें पाकिस्तान की आधिकारिक नीतियों की झलक देखने को मिलती है| अपने १५ मिनट के भाषण के दौरान सेना-प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने आतंरिक सुरक्षा से लेकर देश की विदेशनीति से सम्बंधित महत्वपूर्ण मामलों पर प्रकाश डाला|

आतंरिक सुरक्षा पर अपने विचार रखते हुए उन्होंने “बुरे-आतंकियों” को न केवल “भटके हुए लोगों” कहकर सम्बोधित किया बल्कि उन्हें यह भी बताया कि इस्लाम के मुताबिक “जिहाद रियासत की जिम्मेदारी और उसका हक़ है और यह हक़ रियासत के पास ही रहना चाहिए|” इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि “पाकिस्तान का मतलब क्या? ला-इलाहा-इल्लिलाह के वारिस होने पर हमें फख्र है|” एक ओर तो यह तथ्य इस बात की ओर इशारा करता है कि पाकिस्तान आतंकवाद को एक “रणनीतिक अस्त्र” के तौर पर इस्तेमाल करता रहेगा| एवं दूसरी तरफ इसके मायने यह हैं कि इस्लाम अभी भी पाकिस्तान की पहचान का अभिन्न अंग बना हुआ है तथा देश के नीतिनिर्धारकों में इस पर एकमतता है|

आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से निपटने के लिए सेना-प्रमुख ने कहा कि सेना, सरकार, और अन्य संस्थानों के बीच जरुरी सुधार पर बात-चीत जारी है जिनके बिना राष्ट्रीय कार्रवाई नहीं हो सकती| इन सुधारों के केंद्र में प्रमुख रूप से देश के शिक्षा संस्थान, मदरसे, पुलिस, और कानूनी उपाय शामिल हैं| अब प्रश्न यह उठता है कि क्या समस्या की जड़ को समाप्त किए बिना ही सतही तौर पर किए जाने वाले इन सुधारों से वास्तविक धरातल पर कोई परिवर्तन देखने को मिलेगा?

अंतर्राष्ट्रीय समाज द्वारा लगातार डाले जा रहे दबाव पर पाकिस्तान का पक्ष रखते हुए सेना-प्रमुख ने स्पष्ट किया कि राष्ट्र ने आतंकवाद विरोधी अभियान में पिछले दो दशक के दौरान बेइन्तहा कुरबानियां दी हैं| आतंकवाद के खिलाफ छेड़े गए इस युद्ध में अब तक मिली कामयाबी सिर्फ पाकिस्तान का ही कमाल है| इसके पश्चात उन्होंने सेना द्वारा किए गए सैन्य ऑपरेशन का जिक्र करते हुए कहा कि “ऑपरेशन शेरदिल से लेकर राह-ए-रस्त, राह-ए-निजात, ज़र्ब-ए-अज्ब और अब रद्द-उल-फसाद तक हमने एक एक इंच की कीमत अपने लहू से अदा की है|” हालाँकि उन्होंने यह नहीं स्पष्ट किया कि क्यों इतने सारे ऑपरेशन के बावजूद बहुत से आतंकवादी संगठन बचे रह गए| उन्होंने यह भी नहीं बताया कि क्यों अभी तक पाकिस्तान विश्व के कुख्यात आतंकवादी संगठनों की शरणगाह बना हुआ है|

बाजवा के भाषण से ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान की राष्ट्रीय  कहानी (नेशनल नैरेटिव) में रत्ती भर बदलाव नहीं आया है और यह अभी भी भारत को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है| भारत पर अप्रत्यक्ष हमला बोलते हुए सेना-प्रमुख ने कहा कि दुश्मन की कोशिश यह है कि बलूचिस्तान में अशांति फैलाकर पाकिस्तानी लोगों के भविष्य और पाकिस्तान-चीन दोस्ती को नुक्सान पहुंचाए| १९७१ के युद्ध का जिक्र करते हुए बाजवा भारत पर बांग्लादेश के उदय का आरोप मढ़ने से भी नहीं चूके| इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत पर पाकिस्तान के पानियों पर भी कब्ज़ा करने का झूठा और मनगढ़ंत आरोप लगाया| गौरतलब है कि भारत सिन्धु जल समझौते के आधार पर निर्धारित अपने ही हिस्से का पूरा पानी उपयोग नहीं करता है| पाकिस्तान के हिस्से के  पानी को कब्ज़ा करने का तो सवाल ही नहीं उठता है|    

पाकिस्तानी दहशतगर्दी पर पर्दा डालते हुए सेना-प्रमुख ने जम्मू-कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी ताकतों के कारनामों को शांतिपूर्ण संघर्ष की संज्ञा दी| इसके अतिरिक्त भारत को यह भी सलाह दे डाली कि इस मसले का हल भारत के अपने हित में है इसलिए उसे “पाकिस्तान के खिलाफ गाली और कश्मीरियों के खिलाफ गोली” की नीति के मुकाबले राजनीतिक और कूटनीतिक तरीकों को वरीयता देनी चाहिए| साथ ही साथ वह जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का पुराना राग अलापना भी नहीं भूले| उन्होंने यह स्पष्ट किया कि पाकिस्तान, कश्मीरियों की इच्छा के मुताबिक और संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों की रौशनी में इस मुद्दे के हल के लिए अपनी नैतिक, कूटनीतिक, और राजनीतिक समर्थन जारी रखेगा|

और तो और पाकिस्तान को एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बताते हुए सेना प्रमुख ने दक्षिण एशिया में परमाणु हथियार लाने और गैर-परंपरागत युद्ध (नाँन-ट्रेडिशनल वॉर) शुरू करने का ठीकरा भी भारत पर ही फोड़ा| इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि पाकिस्तानी सेना-प्रमुख के आरोपों के विपरीत यह पाकिस्तान ही था जिसने सन १९४७ में उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के कबायलियों और सेना के जवानों की मदद से भारत के खिलाफ गैर-परंपरागत युद्ध छेड़ा था| इसकी सफलता से उत्साहित होकर पाकिस्तान के नीतिनिर्धारकों ने बाद में इसे विदेशनीति का एक अघोषित अंग बना लिया जिसके परिणामस्वरुप दक्षिण एशिया में आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिला|

इसी तरह अफ़ग़ानिस्तान में भी अपनी कारस्तानियों को छिपाते हुए, सेना-प्रमुख ने महाशक्तियों के हस्तक्षेप पर ही सारा दोष मढ़ने की कोशिश करते हुए कहा कि पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान को अपनी क्षमता से अधिक मदद की| लेकिन आगे से वह अफ़ग़ानिस्तान की जंग अपने देश (पाकिस्तान) में नहीं लड़ सकते| उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यदि अफ़ग़ान धड़े युद्ध की तरफ बढ़ रहे हैं तो पाकिस्तान किसी भी सूरत में इस युद्ध का हिस्सा नहीं बन सकता| हालाँकि जमीनी सच्चाई इसके विपरीत है|

हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प की नीतियों में बदलाव के बाद पाकिस्तान की काफी फजीहत हुई थी| इस मामले पर अपने विचार व्यक्त करते हुए सेना-प्रमुख ने कहा कि पाकिस्तान उपादान (ऐड) नहीं, इज्जत और भरोसा चाहता है| वह चाहता है कि आतंक-विरोधी अभियान में उसकी कुर्बानियों को नजरअंदाज न किया जाए|

वास्तव में सेना-प्रमुख के इस भाषण के सूक्ष्म-विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि आने वाले समय में पाकिस्तान की दक्षिण एशिया के प्रति नीतियों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं होने वाला है| चाहे वह आंतरिक सुरक्षा हो या विदेशनीति, सेना की भूमिका पहले की तरह ही निर्णायक रहेगी| भारत न केवल सबसे बड़े शत्रु के रूप में देखा जायेगा बल्कि पाकिस्तान की आतंरिक असफलताओं का ठीकरा भी इसी के सर पर फोड़ा जाता रहेगा| पूर्व की भाँति अफ़ग़ान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क सहित अन्य आतंकी संगठनों को पाकिस्तान में शरण मिलती रहेगी|

(साभार: राष्ट्रीय सहारा)

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