Weekly Program on World Affairs

 



नई इबारत लिख रहे हैं भारत-इजराइल संबंध-डॉ सलीम अहमद







अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ लार्ड पामर्स्टन ने ठीक ही कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ना तो कोई हमारा स्थायी मित्र है, और ना ही कोई स्थायी शत्रु,  बल्कि हमारे हित स्थायी हैं, और यह प्रत्येक राष्ट्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने हितों की पूर्ति करे. भारत-इजराइल संबंध इसका अच्छा उदाहरण है. जब किसी भी राष्ट्र में सत्ता-परिवर्तन होता है या यूँ कहें किसी अन्य पार्टी के नेतृत्व में सरकार का गठन होता है तो इसका सीधा प्रभाव न सिर्फ घरेलू नीतियों पर बल्कि विदेशनीति पर भी पड़ता है. स्वतंत्रता के पश्चात, भारत की विदेश नीति का निर्माण, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में हुआ. वह महात्मा गाँधी के राजनैतिक उत्तराधिकारी थे. नेहरु जी उपनिवेशवाद के विरूद्ध थे, उनकी विदेशनीति का आधार आदर्शवाद था, शीतयुद्ध के समय उन्होंने किसी भी गुट में सम्मिलित न होकर स्वतंत्र गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया, वहीँ दूसरी ओर इजराइल को पश्चिमी देशों का समर्थन मिला हुआ था जिसकी वजह से पश्चिम एशिया में यहूदी राज्य का सपना साकार हुआ. नेहरु जी ने फलस्तीन-इजराइल संघर्ष में फलस्तीनियों की हिमायत की और यहूदी राज्य से उचित दूरी बनाये रखीं. उनकी मृत्यु के पश्चात, कांग्रेस के नेतृत्व मे बनने वाली सरकारों ने भी इसी नीति का अनुसरण किया. लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बी.जे.पी सरकार का गठन हुआ तभी से भारत-इजराइल संबंधों में गुणात्मक विकास हो रहा है. साथ ही, दोनों राष्ट्रों की सरकारें धार्मिक रुढ़िवाद से ग्रस्त घोर राष्ट्रवादी हैं, घरेलू चुनौतियां एवं प्रायोजित इस्लामिक आतंकवाद दोनों देशों के मध्य सामान्य मुद्दें हैं. विचारों का समान होना दोनों राष्ट्रों के संबंधों को मज़बूत आधार प्रदान करता है. जुलाई महीने के प्रथम सप्ताह में मोदी इजराइल के आधिकारिक दौरे पर जा रहे हैं जोकि प्रथम बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा यहूदी राज्य की यात्रा होगी, परम्परागत शैली से हटते हुए इस दौरे में किसी भी पड़ोसी देश को शामिल नहीं किया गया है. इस यात्रा के दौरान दोनों “देशों के मध्य रक्षा, कृषि, शिक्षा, जल सुरक्षा एवं प्रबंधन और सांस्कृतिक क्षेत्रों में समझौते होने की संभावना है. साथ ही भारतीय सेना के लिए स्पाइक टैंक रोधी मिसाइल एवं नौसेना के लिए बराक ८ मिसाइल संबंधी समझौता” होने की संभावना है. 

भारत और इजराइल के बीच सदियों पुरानें सांस्कृतिक संबंध हैं. ऐसा माना जाता है कि यहूदी लोग इजराइल को पैतृक भूमि तो भारत को मातृभूमि मानते हैं. भारत में यहूदी लोंगों का समुदाय निवास करता है और बहुत से भारतीय लोग यहूदी राज्य में जाकर बस गये हैं जहाँ पर भारतीय संस्कृति को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. साथ ही,  इजराइल में लगभग १० प्रतिशत भारतीय छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. भारत-इजराइल के मध्य कूटनीतिक संबंधों का आरम्भ १९९२ में हुआ. हालाकि भारत ने यहूदी राज्य को १९५० मे ही मान्यता दे दी थी. लेकिन विचारधारा मे अंतर और पश्चिमी एशियाई अरब देशों के साथ घनिष्ठ संबंध होने के कारण दोनों देशों के मध्य संबंध पूर्णरूप से विकसित न हो सके. क्योंकि भारत की ऊर्जा सम्बंधित जरूरतें खाड़ी देशों द्वारा पूर्ति की जाती है. शीत युद्ध के पश्चात, भारत और इजराइल ने कूटनीतिक संबंधों को विकसित करना आरम्भ किया. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि भारत ने यहूदी राज्य के साथ संबंधों का विकास अन्य मुस्लिम देशों की कीमत पर किया, बल्कि भारत ने एक संतुलित कूटनीति का अनुसरण करते हुए पश्चिम एशिया के दूसरें अरब राष्ट्रों के साथ भी संबंधों को बनाये रखा और इजराइल के साथ भी. आज पश्चिम एशिया के सभी देशों के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध हैं चाहे वह सऊदी अरबिया, ईरान, तुर्की, फलस्तीन या इजराइल हो. भारत ने हमेशा से ही अपने राष्ट्रहितों को प्राथमिकता देते  हुए अपने वैदेशिक संबंधों को विकसित किया. लेकिन सन २०१४ में, जब यहूदी राज्य के विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रस्ताव लाया गया जिसके अंतर्गत इजराइल के द्वारा फलस्तीनियों के ऊपर गाज़ा संघर्ष में किये गए युद्ध अपराध का आरोप लगाया गया था तो उस समय भारत ने अपनी परंपरागत नीति से पीछे हटते हुए इस प्रस्ताव को समर्थन न देकर इससे पृथक रहा. नईं दिल्ली का इस प्रस्ताव से अलग रहना दूसरें पश्चिमी एशियाई अरब देशों लिए स्पष्ट संकेत था कि भारत अपनी परम्परागत विदेशनीति में बदलाव कर रहा है. भारत की इस नीति से जहाँ एक ओर फलस्तीन को जोरदार झटका लगा, वहीँ दूसरी ओर भारत-इजराइल संबंधों को बल मिला. क्योंकि इससे पहले भारत ने सदेव फलस्तीनियों का समर्थन किया. लेकिन नईं दिल्ली का इस प्रस्ताव से अलग रहने पर दूसरें पश्चिमी एशियाई अरब देशों ने किसी भी तरह से भारत की न तो आलोचना की और न ही अपने संबधो को भारत-इजराइल संबंधों के साथ जोड़ कर देखा। यह पी. एम. मोदी की बड़ी उपलब्धि है कि उन्होंने इस मिथक को तोड़ दिया है कि यदि भारत इजराइल से अच्छे संबंध बनाता है तो इससे भारत के अरब मित्र नाराज़ हो जाएंगे। बल्कि खुद फलस्तीन के राष्ट्र अध्यक्ष ने प्रत्यक्ष रूप से फलस्तीन-इजराइल समस्या के हल करने के लिए भारत को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह किया है। वर्तमान में, पी. एम. मोदी के नेतृत्व में भारत-इजराइल संबंधों को बढ़ावा दिया जा रहा है. दोनों देशों के मध्य कूटनीतिक संबंधों को शुरू हुए लगभग २५ वर्ष हो चुके हैं. परिणाम स्वरुप, भारत और इजराइल दोनों राष्ट्रों की ओर से निरंतर आधिकारिक यात्राएँ हो रही हैं. अक्टूबर २०१५ में, भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी यहूदी राज्य की आधिकारिक यात्रा पर गये. इसके विपरीत, नवम्बर २०१६ में यहूदी राज्य के राष्ट्रपति रयूवें रिवलिन आधिकारिक यात्रा पर भारत आये. दोनों देशों के मध्य साझा रणनीतिक क्षेत्रों में संबंध तेज़ी से विकसित हो रहें है. इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से, सैन्य एवं रक्षा, खुफिया, नौसेना सुरक्षा संबंधित, कृषि क्षेत्र, खाद्य सुरक्षा, जल प्रबंधन, अन्तरिक्ष, साइबर सुरक्षा, असममित युद्ध, और “मेक इन इंडिया” मिशन आदि शामिल हैं. इजराइल भारत को रक्षा सम्बंधित उपकरण बहुत अधिक मात्रा में निर्यात करता है जिनमे मुख्य रूप से जहाज, रक्षा मिसाइलें, और मानव रहित विमान आदि हैं. इजराइल ने भारत के साथ रक्षा संबंधी तकनीकी कला को भी साझा किया है. भविष्य मे, दोनों देश मिलकर शोध और विकास, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, पर्यटन आदि सम्बंधित क्षेत्रों के लिए कार्य कर रहें हैं. साथ ही दोनों राष्ट्रों के मध्य लगभग ४.५ बिलियन डालर का व्यापार हो रहा है. अभी हाल ही में, भारत और इजराइल के मध्य एक बड़ा रक्षा समझौता हुआ जिसके अंतर्गत भारत इजराइल से ६३ करोड़ डालर में अत्याधुनिक हवाई एवं मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदेगा जिसको भारत नौसेना के अलग-अलग युद्धपोतों पर तैनात किया जायेगा.

अभी हाल ही में, फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास भारत की चार दिवसीय यात्रा पर आये जिसका उद्देश्य भारत-फलस्तीन के मध्य संबंधों में फिर से गर्माहट लाना था, क्योंकि अगले महीने मोदी इजराइल के दौरे पर जा रहे हैं. मोदी ने फलस्तीन-इजराइल संघर्ष  के जल्दी  और स्थायी हलनिकालने की उम्मीद दिलायी, और कहा कि भारत सार्वभोम, स्वतंत्र, एकजुट एवं व्यवहार्य फलस्तीन की उम्मीद करता है, जो इजराइल के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्वके साथ रह सके. फलस्तीन हमेशा से चाहता है कि भारत फलस्तीन-इजराइल संघर्ष को हल करने के लिए हस्तक्षेप करे, लेकिन भारत ने इजराइल के साथ मेल खा रहे रणनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए उचित दूरी बनाये रखी जोकि भारत की परम्परागत विचारधारा के विपरीत है. भारत को अल्प अवधि लाभ के लिए विचारधारा के साथ समझौता नहीं करना चाहिए बल्कि दीर्घकालिक लाभ को केन्द्रित करते हुए विचारधारा का मजबूती के साथ पालन करना चाहिए. विद्वानों का मानना है कि भारत इजराइल से जो रक्षा संबंधी उपकरण खरीद रहा है उससे यहूदी राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल रही है. यहूदी राज्य की रीढ़ का मज़बूत होना फलस्तीनियों की स्तिथि को कमज़ोर करता है. भारत के लिए ज़रूरी है कि फलस्तीन-इजराइल समस्या का दीर्घकालिक समाधान का उद्देश्य रखते हुए इजराइल के साथ संबंधो को विकसित करे। अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर विदेशी संबंधों का संचालन कर रहा है जोकि भारत की पश्चिम एशिया नीति में एक बड़े बदलाव का संकेत है. इसी बदलाव के कारण, भारत-इजराइल संबंध बहुत ही तेज़ी से प्रगाढ़ता की ओर बढ़ रहें हैं. इसका श्रेय पी. एम. मोदी के प्रभावशाली नेतृत्व को जाता है और उनकी आगामी इजराइल की यात्रा इतिहास के सुनहरे पन्नों पर लिखी जाएगी.

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