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पाले-पोसे आतंक का कुफल- डॉ. आशीष शुक्ल

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अमेरिकी विदेश विभाग, जिसे डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट के नाम से जाना जाता है, ने हाल ही में आतंकवाद पर वर्ष २०१६ के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की है| इस रिपोर्ट में निर्विवाद रूप से इस तथ्य को पुनःस्थापित किया गया है कि अल-कायदा, उसके दक्षिण एशियाई प्रारूप (ए.क्यू.आई.एस.), और हकानी नेटवर्क सहित कुछ अन्य आतंकी संगठनों को पाकिस्तान में अभी भी सुरक्षित ठिकाने (सेफ हैवेन) आसानी से उपलब्ध हैं| रिपोर्ट में यह बात भी कही गयी है कि पाकिस्तान ने उन आतंकवादी संगठनों, विशेषकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (पाकिस्तानी तालिबान), के खिलाफ तो प्रभावी कार्यवाहियां की हैं जिनका लक्ष्य पाकिस्तान में अशांति फैलाना रहा है, लेकिन उन संगठनों, जिनका उद्देश्य पाकिस्तान के बाहर (अफ़ग़ानिस्तान और भारत) अशांति फैलाना है, पर समुचित कार्यवाही का नितांत भाव है| इस श्रेणी में अफ़ग़ान तालिबान के अतिरिक्त, लश्कर-ए-तय्यबा, और जैश-ए-मोहम्मद जैसे  आतंकवादी संगठनों को रखा गया है जो भारत को निशाना बनाने के लिए जाने जाते हैं| 

इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के साथ ही भारतीय मीडिया के एक धड़े ने इसे भारत की सफलता के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया है| भारत जैसे बड़े और लोकतान्त्रिक देश के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण विषयों/मुद्दों  पर इस तरह की जल्दबाजी ठीक नहीं है| रिपोर्ट के सूक्ष्म-विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि जिन तथ्यों का हवाला देकर उन्हें भारत की रणनीतिक और कूटनीतिक सफलता के रूप में पेश किया जा रहा है, वह दक्षिण एशिया समेत वैश्विक समुदाय को पहले से ही ज्ञात हैं तथा इस संदर्भ में पर्याप्त साक्ष्य भी उपलब्ध हैं| रिपोर्ट में भारत से सम्बंधित खंड (सेक्शन) में यह कहा गया है कि भारत लगातार माओवादी और पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों के हमलों का शिकार होता रहा है, और भारतीय प्राधिकारी जम्मू-कश्मीर में होने वाली आतंकी घटनाओं पर पाकिस्तान को आरोपित करते रहे हैं| रिपोर्ट की भाषा और शब्दावाली इस तथ्य की ओर इशारा करती है कि अमेरिका भारत मे होने वाली पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी गतिविधों में उसे प्रत्यक्ष रूप से दोषी बताने से बचना चाहता है| रिपोर्ट में इस बात को भी प्रमुखता दी गयी है कि वर्ष २०१६ के दौरान भारत ने अमेरिका से आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाना चाहा था| भारत काफी पहले से ही आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का हिमायती रहा है| भारत और अमेरिका के बीच इस मुद्दे पर लगातार जारी सहयोग इसी नीति के अनुरूप ही है| 

पाकिस्तान से सम्बंधित खंड में पाकिस्तान को आतंकवाद-विरोधी अभियान में अमेरिका के एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में रेखांकित किया गया है| साथ ही यह भी बताया गया है कि पाकिस्तान अभी भी अच्छे और बुरे आतंकी संगठनों में भेद करता है| दोनों खंडों (भारत और पकिस्तान) को एक साथ विश्लेषित करने से यह बात काफी स्पष्ट हो जाती है कि अभी अमेरिकी नीतियों में पाकिस्तान को लेकर किसी मूलभूत परिवर्तन की गुंजाइश न के बराबर है| अंग्रेजी में एक कहावत है कि आपकी कार्यवाही (एक्शन) आपके शब्दों से ज्यादा प्रभावी होती है| अमेरिका जैसे ताकतवर देश के लिए तो यह कार्य बहुत मुश्किल भरा भी नहीं माना जाता है| इस तरह की रिपोर्ट यदि भविष्य में किसी ठोस कार्यवाही का आधार बने तो निश्चित रूप से पाकिस्तान को अपना नजरिया और व्यवहार दोनों बदलने को विवश कर सकती है| लेकिन इसके विपरीत यदि किसी ठोस कार्यवाही का लगातार अभाव बना रहे, तो इनकी उपयोगिता पर एक बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न भी लगता है| पाकिस्तान-अमेरिकी संबंधों के इतिहास, पाकिस्तान की भू-रणनीतिक (जियो-स्ट्रेटेजिक) अवस्थिति, तथा वर्तमान समय में बदलती हुई भू-राजनितिक (जियो-पोलिटिकल) और भू-आर्थिक (जियो-इकोनोमिक) स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व की तरह इस बार भी अमेरिका पाकिस्तान के नजरिए और व्यवहार में, विशेषकर भारत-विरोधी गतिविधियों के सन्दर्भ में, महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने के लिए कोई ठोस कदम उठाने से परहेज करेगा| उसका जोर स्वाभाविक रूप से उसके स्वयं के हितों की पूर्ति पर ज्यादा होगा| अतः इस बात की पर्याप्त संभावना है कि वाशिंगटन, इस्लामाबाद और रावलपिंडी पर अफ़ग़ानिस्तान के मसले को सुलझाने तथा अमेरिका-विरोधी आतंकवादी संगठनों के खिलाफ़ कार्यवाही करने के लिए दबाव डालेगा| 

जहाँ तक पाकिस्तान प्रायोजित भारत-विरोधी आतंकवादी संगठनों का प्रश्न है, पाकिस्तान के सुरक्षा अधिष्ठानों द्वारा अपनाई गई नीतियों में कोई मूलभूत परिवर्तन के आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं| इसके पीछे कई कारण हैं जिनमें सबसे प्रमुख है पाकिस्तान के राष्ट्रीय अफसाने (नेशनल नैरेटिव) पर सेना का कड़ा नियंत्रण| पाकिस्तान का राष्ट्रीय अफसाना मुख्य रूप से सुरक्षा-केन्द्रित और भारत-केन्द्रित है जिस पर  सेना ने पिछले कई दशकों से विभिन्न क्रियाविधियों (मेकेनिज्म) के माध्यम से अपना नियंत्रण बनाए रखा है| यह अफसाना भारत को पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा मानता है तथा सेना, जो पाकिस्तान की आंतरिक और वाह्य सुरक्षा की जिम्मेदार है, को वह सब करने की लोक-वैधता (पब्लिक लेजीटिमेसी) प्रदान करता है जो पाकिस्तान के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जरूरी हो| 

अपने जन्म के समय  से ही पाकिस्तान तथा उसकी सेना ने इस लोक-वैधता का दुरुपयोग करते हुए भारत के सामने कई तरह की पारंपरिक और  गैर-पारंपरिक परेशानियाँ खड़ी की हैं| सीमापार से प्रायोजित आतंकवाद भी उसी तरह की एक गैर-परंपरागत चुनौती है जिसे पाकिस्तान तथा उसकी सेना एक रणनीतिक अस्त्र और विदेशनीति के एक औजार के तौर पर उपयोग करते हैं| ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों की क्षमताओं में एक स्वाभाविक अंतर रहा है जो इनकी सैन्य ताकतों में भी परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) होता है| पाकिस्तानी रणनीतिकार यह बात भलीभांति जानते थे/हैं कि उनके लिए इस अंतर को ख़त्म करना संभव नहीं होगा| ऐसी स्थिति में भारत जैसे देश को लगातार उलझाए रखने के लिए गैर-परंपरागत तरीकों का उपयोग करना उपयुक्त समझा जाता है| लश्कर-ए-तैय्यबा, जैश-ए-मोहम्मद और इस तरह के अन्य संगठन इसी सोची-समझी रणनीति का एक हिस्सा हैं| 

इस रणनीति के दूरगामी परिणाम किसी भी दृष्टिकोण से पाकिस्तान के खुद के हित में नहीं थे, लेकिन इस तथ्य को पाकिस्तान के रणनीतिकारों ने लगातार नजरअंदाज किया जिसका परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान स्वयं आतंकी गतिविधियों की चपेट में आ गया| तहरीक-ए-तालिबान (पाकिस्तानी तालिबान) और इस तरह के अन्य संगठन जो आज पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए एक खतरा बनकर उभरे हैं, वास्तव में भारत के प्रति अपनाई गयी उसकी नीतियों का ही नतीजा हैं| वर्ष २०१३ में पहली बार पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर आंतरिक सुरक्षा को देश के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था| हालाँकि इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए जो नीति अपनाई गयी उसमें एक बड़ी खामी है| इस नीति के केंद्र में पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों के द्वारा चलाए गए सैन्य आपरेशन प्रमुख हैं| वर्तमान समय में भी जर्ब-ए-अज्ब और रद्द-उल-फसाद जैसे सैन्य आपरेशन चल रहे हैं जो समस्या के लक्षणों का तो इलाज कर रहे हैं, लेकिन उसकी जड़ों पर प्रहार करने से कतरा रहे हैं| आतंकवाद की जड़ें बिना भारत-केन्द्रित आतंकवादी संगठनों को निशाना बनाए ख़त्म नहीं की जा सकती हैं| और यह तभी संभव है जब पाकिस्तान अपने राष्ट्रीय अफसाने में मूलभूत सुधार करे और एक नए सामाजिक समझौते (सोशल कांट्रेक्ट) का प्रारूप तैयार करे| 

जहाँ तक भारत के सामने पाकिस्तानी व्यवहार में आमूलचूल परिवर्तन लाने की चुनौती है, उसे किसी भी दृष्टिकोण से आसन नहीं माना जा सकता है| कुछ विश्लेषक इस उद्देश्य की पूर्ति  के लिए भारतीय सैन्य ताकत के इस्तेमाल को एक मात्र जरिया मानते हैं| हालाँकि पिछले सात दशकों का इतिहास हमें बताता है कि सैन्य तैयारी निश्चित रूप से जरुरी है, लेकिन सैन्य हस्तक्षेप और कार्यवाहियों की भी एक सीमा है| इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने के लिए भारत को एक दूरगामी रणनीति की जरुरत है जो तरफ तो अपनी आतंरिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करे तथा दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के मुद्दे पर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर जोर दे| 

(साभार: राष्ट्रीय सहारा)

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