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भारत और ईरान केवल 21वीं शताब्दी के दो आधुनिक देश ही नहीं, बल्कि दो बहुत पुरानी सभ्यताएँ भी हैं जिनके बीच सदियों से दोस्ताना संबंध रहे हैं तथा जो अक्सर एक दुसरे का सहयोग करने को तत्पर रहते हैं| दोनों देशों के लोगों और उनके प्रतिनिधियों ने सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों के मार्ग में आने वाली चुनौतियाँ का सामना करते समय अक्सर एक दूसरे की परिस्थितियों और निर्णयों सम्पूर्णता में देखा और अपने दूरगामी हितों पर तात्कालिक फायदे को कभी भी वरीयता नहीं दी| बदलती हुई भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक परिस्थितियों में ईरानी राष्ट्रपति हसन रौहानी का हालिया भारत दौरा इस सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है| इस दौरान भारत और ईरान ने कुल नौ समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिसमें सबसे प्रमुख चाबहार स्थित शाहिद बेहेश्ती बंदरगाह के फेज-1 का पट्टा एक भारतीय कम्पनी को दिया जाना है| भारत के द्वारा विकसित किए जा रहे फेज-1 का निर्माण कार्य पिछले वर्ष पूरा हो गया था तथा दिसंबर में इसका शुभारम्भ किया गया था| लगभग 85 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से बनकर तैयार होने वाला यह बंदरगाह पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रान्त में स्थित और चीन के सहयोग से बने ग्वादर बंदरगाह से मात्र 90 किलोमीटर की दूरी पर है|
गौरतलब है कि चीन के एक बेल्ट-एक सड़क और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे, जो पाकिस्तान द्वारा अनाधिकृत रूप से कब्ज़ा किए गए जम्मू-कश्मीर क्षेत्र से होकर गुजरता है, की उद्घोषणा के समय से ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि हो न हो भारत अब चीन के साथ होने वाले आर्थिक और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता चला जाएगा और उसके विकल्प सीमित होते चले जाएँगे| बहुत से विश्लेषकों ने तो यहाँ तक चेताया कि अपने सतह पर आर्थिक प्रतीत हो रही ये परियोजनाएं वास्तव में चीन की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं जो उसे आर्थिक लाभ के साथ साथ हिंदमहासागर में अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका भी उपलब्ध कराती हैं| कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है चीन अपनी इन परियोजनाओं के तहत भविष्य में सैन्य ठिकाने बनाकर हिंदमहासागर में भारत के एकाधिकार को चुनौती देने की तैयारी कर रहा है| भारत के लिहाज से यह गतिविधि कत्तई उसके दूरगामी हितों के अनुरूप नहीं मानी जा सकती थी|
जहाँ तक चीन की आधिकारिक नीतियों और घोषणाओं का प्रश्न है, वह हमेशा इसे आर्थिक नजरिये से देखने की बात करता है| उसका दावा है कि वह वास्तव में पुराने रेशम मार्ग को फिर से बनाने के लिए प्रयास कर रहा है| यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि पुराना रेशम मार्ग, जिसे चीन अब फिर से पुनर्जीवित करने की बात कर रहा है, बिना भारत को शामिल किए पूरा ही नहीं हो सकता है क्योंकि चीन के साथ-साथ भारत भी पुराने रेशम मार्ग का अविभाज्य हिस्सा या अटूट कड़ी था| वर्तमान समय में बदली हुई परिस्थिति और पाकिस्तान के द्वारा अनाधिकृत रुप से कब्ज़ा की गयी भूमि, जिससे होकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा जा रहा है, पर संप्रभुता के प्रश्न पर भारत ने इससे अलग रहने का निर्णय लिया है तथा इस परियोजना पर लगातार अपनी आपत्ति भी दर्ज कराई है| चीन ने अभी तक भारत द्वारा की जा रही इन आपत्तियों के निराकरण करने के लिए कोई जरुरी प्रयास नहीं किया है|
जहाँ तक भारत का प्रश्न है, वैश्विक और एशियाई परिदृश्य में अपने बढ़ते हुए कद तथा आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए उसे एक ऐसा रास्ता तलाश करना था जिससे कि उसके तात्कालिक और दूरगामी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं का समुचित निराकरण किया जा सके| इस क्रम में भारत को मई 2016 में उस समय एक अभूतपूर्व सफलता मिली जब उसने ईरान के चाबहार में स्थित बंदरगाह को विकसित करने के लिए एक समझौता किया| साथ ही साथ भारत, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में एक परिवहन एवं व्यापारिक गलियारे के निर्माण के लिए भी सहमति बनी जिसके माध्यम से भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान होते हुए मध्य एशिया और यूरोप के देशों से व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ाई जा सकें| जल्द ही भारत के इस कदम को चीन की एक बेल्ट-एक सड़क और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की परियोजना के जवाब के तौर पर देखा जाने लगा|
वैसे तो चाबहार में बंदरगाह बनाने और उसके माध्यम से दूसरे देशों तक पहुँचने का रोडमैप काफी पहले से चर्चा में था, लेकिन हाल के समय में भारत के लिए उसे मूर्त रूप प्रदान करना अत्यंत जरूरी था क्योंकि पाकिस्तान किसी भी हालत में उसे अपने जमीन से होकर अन्य देशों में जाने की इजाज़त न देने पर अड़ा हुआ था और भविष्य में भी ऐसी कोई सम्भावना प्रतीत नहीं हो रही थी| भारत द्वारा इसका एक विकल्प तैयार करने के लिए लगातार की जा रही कोशिशें शीघ्र ही रंग लाने लगीं और अक्टूबर 2016 में भारत के कांदला बंदरगाह, जिसे अब दीनदयाल बंदरगाह कहा जाता है, से पहली बार बड़ी मात्रा में अफ़ग़ानिस्तान को गेहूं भेजा गया| इस प्रयोग की सफलता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों देशों के विदेश मंत्रियों (सुषमा स्वराज और सलाहुद्दीन रब्बानी) ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से इसकी निगरानी की थी|
चाबहार में स्थित इस बंदरगाह की रणनीतिक अवस्थिति भारत के लिए कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है| सर्वप्रथम यह उसे स्थलरुद्ध (लैंड लाक्ड) अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के देशों तक पहुँचने का सीधा, सुरक्षित, आसान और आर्थिक रूप से किफायती रास्ता उपलब्ध कराता है| भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्था को एक लम्बे समाया तक निर्बाध रूप से ऊर्जा आपूर्ति की आवश्यकता है| चाबहार में बने इस बंदरगाह के माध्यम से भारत, ईरान सहित मध्य एशियाई देशों के प्राकृतिक गैस के भंडारों का आपसी सहमति और समझौते के अनुरूप उपयोग करते हुए अपनी घरेलू ऊर्जा आपूर्ति को सुनिश्चित कर सकता है|
तीसरे, भारत अब पाकिस्तान को बाईपास करते हुए एशिया और यूरोप के बड़े बाजारों तक अपनी पहुँच बना सकता है और सामानों के लाने-ले जाने में आने वाली लागत को काफी कम कर सकता है| इस क्षेत्र में हुए अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि चाबहार बंदरगाह के माध्यम से सामानों की आवाजाही पर लगने वाले समय और खर्च में कम से कम तीन गुना कटौती होगी| चौथे, पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के विरूद्ध अन्य देशों के साथ प्रभावी सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है तथा क्षेत्र में उपस्थित और सक्रिय वैश्विक आतंकवादी गुटों के खिलाफ ज़रूरी कार्यवाही की जा सकती है| पांचवीं, चीन द्वारा हिंदमहासागर में उसकी स्थिति मजबूत करने के सपने को तगड़ा झटका दिया जा सकता है|
उपरोक्त विश्लेषण के आलोक में यह कहा जा सकता है कि भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के सन्दर्भ में जो रास्ता चुना है वह अब तक अपेक्षा के अनुरूप परिणाम दे रहा है|
साभार: राष्ट्रीय सहारा
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