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अभी हाल ही में, भारतीय प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने फिलिस्तीन की यात्रा संपन्न की जोकि कई मायनों में महत्वपूर्ण
रही. प्रथम तो यह है कि इस यात्रा में यहूदी राज्य इजराइल को सम्मिलित नहीं किया
गया था, लेकिन जिस प्रकार, यहूदी राज्य ने पी. एम. मोदी को हवाई सुरक्षा प्रदान की,
तेल अवीव के इस कृत्य को प्रशंसनीय ही माना जायेगा. दूसरी अहम् बात यह है कि पहली
बार यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा सिर्फ फिलिस्तीन की यात्रा थी. इस यात्रा
से न केवल दोनों देशों के मध्य प्रगाढ़ता बढ़ेगी बल्कि भारत की विदेशनीति में हो
रहें परिवर्तन को लेकर विदेशनीति विश्लेषकों के मन में जो भी शंका उत्पन्न हो रही
थी, उसको दूर करने के लिए यह पी. एम. मोदी के द्वारा किया गया एक सफल प्रयास था.
गौरतलब है कि गत वर्ष जुलाई माह में
पी.एम. मोदी ने यहूदी राज्य इजराइल की आधिकारिक यात्रा संपन्न की, उस समय पी.एम.
मोदी ने फिलिस्तीन की यात्रा न करते हुए भारत की विदेशनीति में हो रहे महत्वपूर्ण बदलाव
की ओर संकेत दिया. उसके पश्चात, दिसम्बर माह में, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड
ट्रम्प ने अमेरिकी दूतावास को इजराइल की राजधानी तेल अवीव से हटाकर जेरुसलम में
स्थानांतरित करने तथा जेरुसलम को यहूदी राज्य की राजधानी बनाने की घोषणा की,
फलस्वरूप, भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में डोनाल्ड ट्रम्प की इस घोषणा के
विरूद्ध वोट किया, जिसको लेकर घरेलू राजनीति में मोदी सरकार की खूब आलोचना हुई. वहीँ
दूसरी ओर, भारत ने फिलिस्तीनी मुद्दे पर अपने परम्परागत स्टैंड को बनाये रखा जोकि
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वतंत्र विदेशनीति का स्पष्ट संकेत था. लेकिन मज़ेदार
बात यह रही कि नव वर्ष के प्रथम सप्ताह में यहूदी राज्य के प्रधानमंत्री बेंजामिन
नेतान्याहू भारत की आधिकारिक यात्रा पर आये, जोकि दोनों राष्ट्रों के लिए मील का
पत्थर साबित हुई. इस कड़ी को आगे जोड़ते हुए, पी. एम मोदी की फिलिस्तीन यात्रा के मायने
इस प्रकार हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति के द्वारा की गयी
एकतरफा जेरुसलम घोषणा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी छवि को धूमिल तो किया ही,
साथ ही साथ, फिलिस्तीन-इजराइल समस्या को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को स्पष्ट
तौर पर इजराइल का हिमायती के रूप में भी देखा गया, जोकि इससे पहले दोनों के मध्य अमेरिका
एक निष्पक्ष निर्णायक मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा था. साथ ही, अरब राष्ट्र और
फिलिस्तीन भारत के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते हुए कद को देखते हुए नयी दिल्ली को
अमेरिका का विकल्प के रूप में देख रहें हैं. दूसरी अहम् बात यह है कि भारत-इजराइल
के मध्य संबंधों में प्रगाढ़ता तेज़ी से बढ़ रही है, भविष्य में फिलिस्तीन-इजराइल
समस्या के समाधान में भारत अपनी निर्णायक मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है. अरब
राष्ट्र और फिलिस्तीन भारत की विदेशनीति में हो रहे अहम् बदलावों को बहुत ध्यान से
देख रहें हैं, उनकी दृष्टि में भारत की विदेशनीति पूर्णरूप से स्वतंत्र और
निष्पक्ष है, जिसका श्रेय माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी को जाता है.
उधर, पश्चिम एशिया के मुस्लिम अरब
देशों ने भी यहूदी राज्य के साथ खुलकर नहीं तो छिपकर ही सही अपने संबंधों को बढ़ाना
शुरू कर दिया है. यह बात तो स्पष्ट है कि वैश्विक राजनीतिक समीकरण में जिस तरह तेज़ी
से बदलाव हो रहें हैं उसको यहूदी राज्य भी महसूस कर रहा है. परिणामस्वरूप, यहूदी
राज्य इजराइल भी अपने पड़ौसी देशों के साथ संबंधों को सुधारना चाहता है. इसका कारण
यह है कि इजराइल हमेशा अपने पड़ौसी देशों के साथ लगातार युद्ध की स्थिति में नहीं
रह सकता है, बल्कि तेल अवीव भी पड़ौसी अरब देशों के साथ शान्ति और सुरक्षा का
वातावरण बनाना चाहता है. इस वैश्वीकरण के युग में, इजराइल भी अरब देशों के साथ अपने आर्थिक एवं राजनीतिक हितों को
साधने के लिए तैयार है, साथ ही, इस तरह की भावनाएं अरब देशों में भी उमड़ती नज़र आ
रहीं हैं.
पश्चिम एशिया की क्षेत्रीय राजनीति में
हो रहें इस गुणात्मक बदलाव को पी. एम. मोदी बाखूबी समझ रहें है और पश्चिम एशिया की
राजनीतिक नाढ़ी को पकड़ते हुए माननीय प्रधानमंत्री ने व्यावहारिक राजनीति का प्रयोग
करते हुए सबसे पहले भारत के साथ फिलिस्तीन-इजराइल संबंधों को “डी-हाइफ़नेटेड” किया.
जिसका लाभ यह मिला कि अब भारत इन दोनों में से किसी के भी साथ नहीं बंधा हुआ है,
बल्कि दोनों ही राष्ट्रों के साथ हमारे प्रगाढ़ संबंध हैं. इसीलिए पी. एम. मोदी ने
अपनी फिलिस्तीन यात्रा के दौरान सावधानी बरतते हुए कहा, “उम्मीद है कि जल्दी ही
फिलिस्तीन को एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण दोनों पक्षों के संवाद
द्वारा शान्ति के वातावरण में हो. हम जानते हैं कि यह कठिन है, पर हमें प्रयास
करते रहना चाहिए, क्योंकि यहाँ बहुत कुछ दांव पर है”. लेकिन पी. एम. मोदी ने उस
समय फिलिस्तीनी राष्ट्रपति के कथन पर जानबूझकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जिसके
अंतर्गत “फिलिस्तीन का निर्माण दो-राष्ट्रों के हल पर आधारित हो जिसमें की जेरुसलम
को फिलिस्तीनी राज्य की राजधानी बनाया जाये”. अगर पी. एम मोदी इस कथन पर कोई
टिप्पणी करते तो संभावना थी कि यहूदी राज्य इसको मानने से इंकार कर दे या भविष्य
में दोनों देशों के संबंधों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़े. पर भारत का यह भी मानना
है कि दोनों राष्ट्रों के मध्य संवाद के ज़रिये इस समस्या का ऐसा समाधान निकाला
जाये जोकि दोनों पक्षों के लिए हितकारी साबित हो. ऐसी संभावना है कि जल्दी ही निकट
भविष्य में भारत दोनों राष्ट्रों को इस समस्या का कूटनीतिक हल निकालने के लिए
आमंत्रित करेगा और अपनी निर्णायक व निष्पक्ष भूमिका निभायेगा.
वही दूसरी ओर, भारत फिलिस्तीन के
राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सराहनीय योगदान दे रहा है. पी. एम. मोदी की
फिलिस्तीन यात्रा का एक मुख्य उद्देश्य फिलिस्तीनी कूटनीतिक संस्थान का उद्घाटन
करना था, जिसके निर्माण में भारत की अहम् भूमिका है. इस संस्थान में फिलिस्तीनी
लोंगों को कूटनीति की शिक्षा दी जायेगी. और संभावना है कि निकट भविष्य में जब
फिलिस्तीन-इजराइल के मध्य कूटनीतिक शान्ति वार्ता आरंभ होगी तब फिलिस्तीनी
वार्ताकार अच्छी तरह से अपने राष्ट्र के हितों को सुरक्षित कर सकें. फिलिस्तीनी
राष्ट्रपति महमूद अब्बास का भी मानना है कि भारत फिलिस्तीन-इजराइल शान्ति वार्ता
में अपनी अहम् भूमिका निभाये. इसीलिए भारत की विदेशनीति में हुए महत्वपूर्ण बदलाव
को फिलिस्तीन और इजराइल अपने-अपने राष्ट्रहितों के नजरियें से देख रहें हैं, फलतः
दोनों ही राष्ट्रों ने इसका खुलकर स्वागत भी किया है.
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