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शीतयुद्ध का नाम सुनते ही हमारे मस्तिष्क में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उभरी दो महाशक्तियों, एक ओर, संयुक्त राज्य अमेरिका जोकि पूंजीवादी विचारधारा का समर्थक है, तथा दूसरी ओर, सोवियत संघ जोकि साम्यवादी विचारधारा का समर्थक था, का नाम आता है. इस प्रकार, शीतयुद्ध दो शक्तिशाली विचारधाराओं के मध्य का युद्ध था. ज्ञात हो कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व पटल पर बहुत से नए राष्ट्रों का उदय हुआ था. यह दोनों महाशक्तियां इन नवोदित राष्ट्रों को अपनी विचारधारा में मिलाना चाहती थीं. उस समय इन नवोदित राष्ट्रों को विकास करने के लिए आर्थिक और तकनीकी सहायता की आवशयकता थी जिसका लाभ उठाकर दोनों महाशक्तियों ने इस सहायता के नाम पर इन राष्ट्रों को सैन्य संधि से बांध लिया था. परिणामस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नवोदित राष्ट्र विश्व के दो शक्तिशाली गुटों में तेज़ी से विभाजित हो रहे थे, मानो समूचा विश्व दो गुटों के बीच राजनीति का अखाड़ा बन गया हो.
भारत जब
ब्रिटिश-राज के चंगुल से आज़ाद हुआ उस समय अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शीतयुद्ध का
माहौल गरमाया हुआ था. उस समय भारत को अमेरिका ने पूंजीवादी विचारधारा में शामिल
होने का प्रस्ताव दिया. लेकिन तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री और साथ ही
विदेशमंत्री पद की कमान पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपने हाथ में संभाल रखी थी. वह
गांधीजी के राजनीतिक उत्तराधिकारी थे, तथा उन्होंने आदर्शवाद को भारत की विदेशनीति का आधार-स्तम्भ
बनाया. परिणामतः नेहरु ने अमेरिकी
प्रस्ताव को दो टूक मना कर दिया और साथ ही यह भी कहा कि भारत शक्ति गुटों की
राजनीति से दूर रहेगा. इस प्रकार शीतयुद्ध के दौरान, भारत ने गुटनिरपेक्षता की
नीति का अनुसरण किया. गौरतलब हैकि दिसंबर 1991 में सोवियत संघ के बिखराव के साथ ही शीतयुद्ध का भी अंत हो गया. अब विश्व
में केवल एक ही विचारधारा रह गयी थी जोकि पूंजीवाद की विचारधारा है. रूस को सोवियत
संघ का उत्तराधिकारी बनाया गया. समूचे विश्व में अमेरिकी समर्थित प्रजातांत्रिक
मूल्यों को अपनाने की बात कही गयी और वैश्वीकरण को मजबूती के साथ बढ़ावा दिया गया. उस
समय भारत ने भी वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए अपनी आर्थिक विदेशनीति नीति में बड़े बदलाव
किये.
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय
राजनीति के अखाड़े में जब कोई शक्तिशाली राष्ट्र या राष्ट्रों का समूह मिलकर कोई क्रिया
करता है तो इसका सीधा प्रभाव विपरीत प्रतिक्रिया के तौर पर देखने को मिलता है.
इसका सबसे अच्छा उदाहरण चीन का वन बेल्ट वन रोड (ओ.बी.ओ.आर.) प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट को न्यू सिल्क रूट के नाम से भी जाना जाता है.
इस प्रोजेक्ट का प्रमुख उद्देश्य एशिया, यूरोप और अफ्रीका के राष्ट्रों को सड़क और
समुद्री मार्गों से जोड़ना है, जिसके ज़रिये चीन की मंशा दुनिया के लगभग 65 देशों को
आर्थिक एवं सामरिक रूप से जोड़कर, इन देशों के मध्य व्यापार को मज़बूत करने में मदद
मिलेगी. इन देशों में विश्व की लगभग आधी से ज्यादा आबादी रहती है. अहम् बात यह है
कि चीन के इस सामरिक एवं आर्थिक प्रोजेक्ट से रूस और पाकिस्तान का जुड़ना इसको
विशेष महत्व प्रदान करता है. इस प्रकार, रूस-चीन-पाकिस्तान मिलकर एक समूह का गठन
करते हैं जोकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ही शक्तिशाली दिखायी पड़ता है. लेकिन चीन
के इस महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट की विपरीत प्रतिक्रिया के तौर पर हम देख सकते है कि अमेरिका
और भारत चीन के इस प्रोजेक्ट में शामिल न होकर इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं तथा
दोनों ही राष्ट्र चीन के इस प्रोजेक्ट को शंका की दृष्टि से देख रहें हैं. मानो
ऐसा लगता है कि चीन इस प्रोजेक्ट के द्वारा सामरिक एवं आर्थिक क्षेत्रों की
नाकाबंदी कर रहा हो.
अभी हाल ही में १५वीं
आसियान-भारत शिखर सम्मेलन का आयोजन फिलीपींस की राजधानी मनीला में सफलतापूर्वक
संपन्न हुआ जिसमें में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को फिलीपींस गणराज्य के
राष्ट्रपति रॉड्रिगो रोआ डूतरते ने अधिकारिक तौर पर आमंत्रित किया गया था. इसके
साथ ही मनीला में 12वीं ईस्ट एशिया शिखर सम्मेलन का भी आयोजन हुआ. इस सम्मलेन के दौरान,
अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा खासतौर पर अहम् रही, और साथ ही साथ, इस सम्मलेन में
चीन की बढ़ती हुई क्षेत्रीय शक्ति, उत्तर कोरिया का आक्रामक रवैया, कट्टर-आतंकवाद
और दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती हुई दादागिरी आदि अहम् मुद्दे चर्चा का विषय रहे.
वहीँ दूसरी ओर, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का एशिया-प्रशांत क्षेत्र को हिन्द-प्रशांत
क्षेत्र के नाम से संबोधित करना यह जतलाता है कि इस क्षेत्र का सामरिक और आर्थिक
महत्व है तथा भविष्य में भारत की विशेष भूमिका रहेगी जिसमे भारत अमेरिकी रणनीति का
मुख्य साझीदार होगा. गौरतलब हैकि भारत-चीन के मध्य अच्छे संबंध नहीं हैं और आसियान
समूह के राष्ट्र भारत को चीन के विकल्प के तौर पर देखते हैं. साथ ही, भारत के जापान
और ऑस्ट्रेलिया के साथ संबंध तेज़ी से विकसित हो रहें हैं. इस प्रकार, अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया
मिलकर एक शक्तिशाली समूह का गठन करते हैं जोकि पहले वाले समूह के खिलाफ़ बन रहा है.
साथ ही, अमेरिका चीन के वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट के विरोध में हिन्द-प्रशांत
क्षेत्र में अपनी पकड़ मज़बूत बनाने के लिए भारत को साथ लेकर अपनी रणनीति बना रहा
है. परिणामस्वरूप, अब भारत अमेरिका की हिन्द-प्रशांत रणनीति के केंद्र में शामिल है.
दूसरी बात यह है कि दक्षिण चीन सागर में भारत और अमेरिका के रणनीतिक हित एक साथ मेल
खा रहे हैं जहाँ पर चीन अपना वर्चस्व बनाये हुए है. साथ ही, आसियान देशों का मानना
है कि भारत परमाणु संपन्न शक्तिशाली देश है और दक्षिण चीन सागर में चीन को संतुलित रखने के लिए भारत
का हस्तक्षेप जरुरी है. वहीँ दूसरी ओर, भारत के भी आर्थिक और सामरिक हित इस
क्षेत्र से जुड़े हुए हैं.
इस प्रकार, वैश्विक
समीकरण नाटकीय ढंग से बदल रही है. विश्व राजनीति नव शीतयुद्ध के उदय की ओर संकेत कर रही है. अब विश्व राजनीति में स्पष्टरूप
से दो शक्तिशाली चतुष्क उभर रहें हैं जिसमे एक ओर पूंजीवादी देश
अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया हैं तो वहीँ दूसरी ओर इस चतुष्क के विरोध में
चीन-रूस-पाकिस्तान-उत्तर कोरिया का चतुष्क है. दोनों चतुष्कों द्वारा आर्थिक और
सामरिक क्षेत्रों की नाकाबंदी की जा रही है. इस नव शीतयुद्ध की वैश्विक समीकरण में
एक बात अहम् है कि इसमें भारत और पाकिस्तान एक-दुसरे के विरोधी गुट में शामिल हैं.
जहाँ शीतयुद्ध के दौरान पाकिस्तान अमेरिका का घनिष्ठ मित्र हुआ करता था आज वह
अमेरिकी विरोधी गुट में शामिल है. वहीँ दूसरी ओर, शक्ति गुटों की राजनीति से दूर
रहने वाला भारत आज अमेरिकी गुट में शामिल
है. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में कहा जाता है कि जो आज हमारा मित्र है, हो
सकता है कि कल वह हमारा शत्रु हो, और जो आज हमारा शत्रु है, हो सकता है कि कल वह
हमारा मित्र हो.
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