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ट्रम्प का येरुशलम स्टंट-डॉ. सलीम अहमद


गत सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक तरफ़ा ही येरुशलम को इजराइल की राजधानी घोषित करते हुए कहा कि अमेरिका तेल अवीव में स्थित अपने दूतावास को हटाकर येरुशलम में स्थान्तरित करेगा. गौरतलब हो कि अमेरिकी दूतावास को हटाने का यह मुद्दा सन 1995 से चल रहा है, इसी बीच तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों  क्रमशः बिल क्लिंटन, जॉर्ज डब्लू बुश और बराक ओबामा ने अपने-अपने कार्यकाल को पूरा किया, लेकिन इनमे से किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने दूतावास को हटाने की पहल नहीं की. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी ऐसी घोषणा क्यों की यह विचारणीय प्रश्न है. इस घोषणा से न सिर्फ अमेरिका की पूरे विश्व में आलोचना हो रही है बल्कि फलस्तीनी मुद्दे पर पूरे मुस्लिम वर्ल्ड में अमेरिका को जाहिरी तौर पर यहूदी राज्य का हिमायती के रूप में देखा जा रहा है. परिणामतः मुस्लिम देशों में फलस्तीन को लेकर एकजुटता तेज़ी से उभर रही है.

ज्ञात हो कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रम्प के चुनावी घोषणा पत्र में दो मुख्य बिंदु थे जिनमे से एक येरुशलम को इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देना और अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से हटाकर येरुशलम में स्थान्तरित करना, तथा दूसरा बिंदु ईरान का अमेरिका के साथ हुआ परमाणु समझौता था. इन दोनों बिन्दुओं ने ट्रम्प की जीत को सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभायी है और इसमें कोई शक भी नहीं है. साथ ही, यहूदी राज्य इजराइल के साथ अमेरिका के संबंध और घनिष्ट हो इसके लिए ट्रम्प की बेटी इवांका के यहूदी पति जारेड कुश्नेर की महत्वपूर्ण भूमिका रही. जारेड ने इजराइल में ट्रम्प की छवि को सकारात्मक तो बनाया ही, वहीँ दूसरी ओर ट्रम्प को इजराइल के साथ मजबूती से जोड़ने का काम भी किया. इसीलिए राष्ट्रपति ट्रम्प और यहूदी राज्य के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के बीच केमिस्ट्री अच्छी बनी हुई है; हालांकि अमेरिका तो यहूदी राज्य को उसके जन्म से ही संरक्षण देता आया है. पश्चिम एशिया में अमेरिका के भू-राजनीतिक हित सुरक्षित रहें इसके लिए जरुरी है कि इस क्षेत्र में अमेरिका की उपस्तिथि बनी रहे. इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अमेरिका यहूदी राज्य को हर प्रकार से सहायता देता रहता है और इजराइल पश्चिम एशिया में अमेरिका की मजबूत पकड़ को दर्शाता है. 

अब राष्ट्रपति ट्रम्प को चुनाव के समय किये गए वादों को पूरा करना था जिससे घरेलू राजनीति में उनकी पार्टी की पकड़ बनी रहे; साथ ही यहूदी राज्य के साथ घनिष्ठता बनाये रखने के लिए जरुरी था कि ट्रम्प येरुशलम को यहूदी राज्य की राजधानी की मान्यता प्रदान करे. इस समय ट्रम्प का यह कदम निश्चित तौर पर एक राजनीतिक स्टंट है. साथ ही इस स्टंट से ट्रम्प ने एक साथ कई लक्ष्यों को साधने का प्रयास किया है. जाहिर है कि इससे यहूदी राज्य की येरुशलम मांग को तो बल मिला ही, साथ ही फलस्तीन-इजराइल शान्ति-वार्ता को भी जोरदार झटका लगा जिसका उद्देश्य साथ-साथ दो राष्ट्रों के निर्माण का हल ढूंढना है जिसके अंतर्गत पूर्वी येरुशलम को भविष्य में बनने वाले फलस्तीनी राज्य की राजधानी सुनिश्चित करना है. ट्रम्प के इस येरुशलम स्टंट से फलस्तीनियों की स्तिथि तो कमजोर हुई ही, पर वहीँ दूसरी ओर, यहूदी राज्य ने इस घोषणा का खुलकर स्वागत किया क्योंकि यह घोषणा इजराइल को फलस्तीन के विरूद्ध किये गए दावों को मजबूती देती है.

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, ट्रम्प द्वारा की गयी घोषणा की घोर आलोचना तो हो ही रही है. मज़ेदार बार यह है कि यूरोपीय यूनियन अमेरिका द्वारा येरुशलम को दी गयी मान्यता की खुलकर मुखालफ़त कर रहा है. इस 28 राष्ट्रों के संगठन का मानना है कि फलस्तीन-इजराइल शान्ति वार्ता के द्वारा जो भी हल निकाला जायेगा वह उसको सहर्ष मानने के लिए तैयार है लेकिन एक तरफ़ा की गयी कोई भी घोषणा नहीं मानी जाएगी. बेंजामिन नेतान्याहू ने यूरोपीय यूनियन की सहमती प्राप्त करने के लिए ब्रुसेल्स की यात्रा की जोकि लगभग 22 वर्ष के पश्चात किसी इजरायली प्रधानमंत्री द्वारा की गयी थी. लेकिन जवाब में यूरोपीय यूनियन की विदेशनीति प्रमुख  फेड्रिका मोग्हेरिनी ने बेंजामिन नेतान्याहू दो टूक मना कर दिया. इसके अतिरिक्त ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन, मोरक्को और इंडोनेशिया आदि देशों ने ट्रम्प के इस फैसले को मानने से इंकार कर दिया है. इससे प्रतीत होता है कि इस मुद्दे पर जहाँ घरेलू स्तर पर अमेरिका की छवि तो मज़बूत हुई, वही वैश्विक स्तर पर अमेरिकी छवि को जोरदार झटका लगा है. अमेरिका को शायद यह लगता था कि यदि वह येरुशलम को मान्यता देगा तो यूरोप और विश्व के अन्य राष्ट्र भी तुरंत मान्यता दे देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस मुद्दे पर अमेरिका अलग-थलग सा  पड़ गया है. साथ ही, इतिहास के पन्नो को पलटने से ज्ञात होता है कि फलस्तीन-इजराइल समस्या के समाधान के लिए अमेरिका ने कई बार निर्णायक मध्यस्थ की भूमिका निभायी है जिसमे मुख्य रूप से मिस्र-इजराइल के बीच हुई कैंप डेविड संधि (१९८९), फलस्तीन-इजराइल के मध्य हुआ ओस्लो समझौता (१९९३) और जोर्डन-इजराइल के बीच हुई शान्ति संधि है. लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प के इस कदम ने अमेरिकी विश्वसनीयता और एक निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है. 

एक और जहाँ पश्चिम एशिया के राष्ट्र क्षेत्रीय राजनीतिक मुद्दों को लेकर बंटे हुए थे, वहीँ दूसरी ओर ट्रम्प की इस घोषणा ने उनको एक मंच पर लाने का काम किया है. मिस्र की राजधानी कैरो में आयोजित अरब देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में ट्रम्प के द्वारा की गयी आधिकारिक घोषणा को रद्द करने की जोरदार मांग की गयी है. मिस्र, तुर्की, ईरान, इराक, सऊदी अरब, जोर्डन और लेबनान आदि देश खुलकर अमेरिका की आलोचना कर रहे है. अरब देशों में अमेरिका के खिलाफ़ लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. फलस्तीनी अथॉरिटी के प्रमुख महमूद अब्बास ने ट्रम्प की इस घोषणा से असहमति जाहिर की है. साथ ही, हमास और हिजबुल्लाह राजनीति में फिर से उभर रहें हैं. फलस्तीन को लेकर एक बार फिर अरब देशों में राजनीतिक माहौल गरमा गया है. अभी हाल ही में, तुर्की में आयोजित मुस्लिम देशों की बैठक में ट्रम्प की इस घोषणा की कड़ी निंदा की गयी और इसको वापस लेने के लिए सहमती जतायी गयी. साथ ही मुस्लिम  देशों  की इस बैठक में सभी राष्ट्रों ने एक तरफ़ा ही पूर्वी येरुशलम को फलस्तीन की राजधानी घोषित कर दिया. उधर संयुक्त राष्ट्र संघ में इस घोषणा के विरूद्ध प्रस्ताव लाया गया जिसके अंतर्गत सभी स्थायी एवं अस्थायी सदस्यों ने अमेरिका की इस घोषणा के विरूद्ध प्रस्ताव पास किया.

गौरतलब है कि सितम्बर 2001 की आतंकवादी घटना के बाद से पश्चिम एशिया के राजनीतिक मंच पर  फलस्तीन-इजराइल समस्या के स्थान पर अन्य मुद्दे छाये हुए थे जैसे अमेरिका द्वारा इराक पर किया गया हमला, दिसम्बर 2010 में शरू हुई अरब क्रांति और उसके बाद इस्लामिक स्टेट का राजनीतिक पटल पर छाये रहना आदि. लेकिन रष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा की गयी इस अधिकारिक घोषणा ने एक बार फिर से फलस्तीनी समस्या को जीवित कर दिया है; मुमकिन है कि अब फलस्तीन-इजराइल शान्ति वार्ता को फिर से आरम्भ किया जाये. जाने-अनजाने में ट्रम्प द्वारा किये गए येरुशलम स्टंट से अरब देशों में फलस्तीन को लेकर एकजुटता तो बन ही रही है और ये भी संभावना है कि ईरान-इराक-सीरिया-हमास-हिजबुल्लाह फिर से मिलकर इजराइल को टक्कर दें. साथ ही, विश्व के अन्य देश भी फलस्तीन की हिमायत कर रहे हैं. इससे फलस्तीन को इजराइल के साथ शान्ति वार्ता करते समय राजनीतिक सोदेबाज़ी में मदद मिलेगी.


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