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भारत-आसियान समूह राष्ट्रों के मध्य आर्थिक संबंधों में तेज़ी होने के साथ ही साथ रणनीतिक साझेदारी में भी तेज़ी आ रही है जिसका मुख्य कारण चीन और उत्तर कोरिया का इस क्षेत्र में बढ़ता आक्रामक रवैया है. भारत-आसियान समूह राष्ट्रों के आर्थिक और भू-रणनीतिक हित एक जगह मेल खा रहे हैं फलतः यह रणनीतिक साझेदारी भविष्य में आर्थिक संबंधों को मजबूत आधार प्रदान करेगी. ज्ञात होकि १५वीं आसियान-भारत शिखर सम्मेलन का आयोजन फिलीपींस की राजधानी मनीला में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ जिसमें में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को फिलीपींस गणराज्य के राष्ट्रपति रॉड्रिगो रोआ डूतरते ने अधिकारिक तौर पर आमंत्रित किया. इसके साथ ही मनीला में 12वीं ईस्ट एशिया शिखर सम्मेलन का भी आयोजन हुआ.
आसियान की स्थापना के ५० वर्ष पूरे हो चुके हैं. सन १९९० के दशक की बात है वैश्विक स्तर बड़े परिवर्तन हो रहे थे, सोवियत यूनियन बिखर चुका था, पश्चिमी शक्तियों द्वारा भूमंडलीकरण और प्रजातंत्रीय मूल्यों को बढ़ावा दिया जा रहा था, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में तेज़ी से बदलाव हो रहे थे, उस समय भारत ने वैश्विक परिदृश्य को दृष्टिगत करते हुए उदारीकरण की नीति को लागू किया था. सन १९९१ में ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हाराव के निर्देशन में “लुक ईस्ट पालिसी” को बनाया गया जिसका मुख्य उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी-एशियाई देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों को बढ़ाना था, क्योंकि इस क्षेत्र में आर्थिक विकास बहुत तेज़ गति पकड़ रहा था. अब विश्व का आर्थिक केंद्र पश्चिम से पूर्व की और करवट ले रहा था. उस समय हमारे नीति-निर्माताओं ने इन बड़े बदलावों को ध्यानपूर्वक समझते हुए तथा इस क्षेत्र की सामरिकता को दृष्टिगत करते हुए “लुक ईस्ट पालिसी” की बुनियाद रखीं. इस प्रकार यह भारत की आर्थिक विदेशनीति के दूरगामी हितों को देखते हुए यह एक बड़ा बदलाव था. सन १९९२ में भारत को आसियान का क्षेत्रीय भागीदार का दर्जा मिला, सन १९९६ में संवाद-भागीदार का, सन २००२ में शिखर वार्ता के स्तर पर और सन २०१२ में रणनीतिक साझीदार बनाया गया. गौरतलब होकि, १२वीं आसियान-भारत शिखर सम्मेलन और ९वीं ईस्ट एशिया शिखर सम्मेलन के दौरान, भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने “लुक ईस्ट पालिसी” को “एक्ट ईस्ट पालिसी” में परिवर्तित कर दिया. इसके पीछे तर्क यह था कि भारत की दक्षिण-पूर्वी-एशियाई देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों में किये गए प्रयासों को प्रत्यक्ष रीति से प्रभावी बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया जा सके.
आज हम देख सकते हैं कि भारत-आसियान के बीच व्यापार और निवेश में तेज़ी से वृद्धि हो रही है, आसियान भारत का चौथा बड़ा व्यापारिक साझीदार बनकर उभर रहा है. सन २०१६-१७ के आर्थिक आंकड़ो के अनुसार, भारत का आसियान के साथ $७१ बिलियन का व्यापार हुआ, जबकि भारत ने आसियान सदस्य देशों को $३० बिलियन का सामान निर्यात किया. ऐसी भविष्य में संभावना है कि भारत-आसियान संयुक्त रूप से दक्षिण एशिया एवं दक्षिण पूर्व-एशियाई क्षेत्रों में आर्थिक विकास के मार्ग को प्रशस्त करेंगे. ज्ञात हो कि पी. एम. मोदी ने इस सम्मलेन में खास तौर पर आसियान सदस्य देशों से व्यापार एवं निवेश, रक्षा एवं सुरक्षा और सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग बढ़ाने की मांग पर जोर दिया. आकड़ों से पता चलता है कि भारत-आसियान दोनों की कुल आबादी लगभग १.८५ बिलियन है जोकि पूरे विश्व की जनसँख्या का लगभग एक-चौथाई भाग है जिसमे अकेले भारत की कुल जनसँख्या लगभग १.३५ बिलियन है तथा दोनों का संयुक्त सकल घरेलु उत्पाद लगभग $ ३.८ ट्रिलियन है. भारत, प्राकृतिक स्रोतों से भरपूर, एक विशाल बाज़ार है और आसियान देशों के विदेशी निवेश के लिए लाभ की असीम संभावनाएं उपलब्ध कराता है.
एक और अहम् बात यह है कि दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में चीन की विस्तारवादी नीतियों के कारण चीन की दादागिरी बढ़ती जा रही है. आसियान समूह के छोटे-छोटे राष्ट्रों में चीन की गतिविधियों को लेकर भय पनप रहा है. चीनी सहायता से उत्तर कोरिया का रवैया और भी आक्रामक हो रहा है, साथ ही, उत्तर कोरिया का परमाणु मिसाइल कार्यक्रम इस क्षेत्र में अस्थिरता उत्पन्न करता है. परिणामतः चीन और उत्तर कोरिया इस क्षेत्र में आसियान समूह राष्ट्रों के लिए खतरा उत्पन्न करतें है. व्यापार-निवेश के साथ ही साथ भारत का आसियान देशों के साथ रणनीतिक संबंधों को विकसित करना, चीन के लिए असहजता उत्पन्न करता है. इसके विपरीत, भारत के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने के लिए चीन, पाकिस्तान की सहायता से ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर रहा है जिससे चीन को हिन्द महासागर में प्रवेश करने का मार्ग मिल जाता है. चीन ने यहाँ भारत को घेरने के लिए “मोतियों की माला” नीति बनायीं है, जिसके द्वारा चीन ने बांग्लादेश में चिट्टागोंग और श्रीलंका में हम्बनटोटा नामक बंदरगाह विकसित कर रहा है. इस बात को खास तौर पर ध्यान रखा जाये कि भारत-आसियान संबंधों के विकसित होने के पीछे चीन एक बड़ा कारक है. आसियान समूह के देश भारत को चीन के विकल्प के रूप में देखतें हैं जिसके ज़रिये दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में शक्ति-संतुलन बना रहे तथा आयात-निर्यात के लिए समुद्री मार्ग खुला रहे. वहीँ दूसरी ओर, भारत को चाहिए कि वह आसियान समूह राष्ट्रों को विश्वास दिलाये कि भारत प्रत्येक परिस्थिति में उनके साथ खड़ा रहेगा. इसके अतिरिक्त, भारत चीन की नकेल कसने के लिए दक्षिण चीन सागर क्षेत्र को शक्ति मुक्त बनाये रखने की जोरदार वकालत करता है. साथ ही, अमेरिका ने जबसे एशिया-प्रशांत क्षेत्र को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र कहकर सम्बोधित किया है, इससे स्पष्ट होता है कि भारत अमेरिका की एशिया-प्रशांत नीति में सबसे अहम स्थान पर है. इस क्षेत्र में शान्ति, स्थिरता एवं सुरक्षा बनाये रखने में अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया से निर्मित सामरिक चतुष्क की भी खूब चर्चा है, जिसका जिक्र हाल के दिनों में बार बार ट्रंप के द्वारा किया जा रहा है.
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